Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 255
________________ + मूलश्लोक ज्ञानिनोऽमृततुल्याय, मृत्युस्तापकरोऽपि सन् । प्रामकुंभस्य लोकेऽस्मिन्, भवेत् पाकविधिर्यथा ॥ १३ ॥ * अर्थ-अज्ञानी प्रात्मा को मृत्यु सन्ताप और दुःख देने वाली लगती है, किन्तु सम्यग्ज्ञानवन्त जीव को यही मृत्यु अमृततुल्य मोक्षपद के लिए हितकर लगती है । जैसे-कच्ची मिट्टी का घड़ा अग्नि में पकाने के बाद अमृततुल्य जल धारण के योग्य बनता है, उसी तरह मृत्यु के समय के रोगादि ताप समभाव से सहने से प्रात्मा मोक्षपद के योग्य बनती है ।। १३ ।। ॐ मूलश्लोक यत् फलं प्राप्यते सद्भिः, व्रतायासविडम्बनात् । ___ तत् फलं सुखसाध्यं स्यात्, मृत्युकाले समाधिना ॥ १४ ॥ अर्थ-व्रतपालन के कष्ट से जो फल सत्पुरुषों को प्राप्त होता है, वही फल मृत्यु के समय समाधि रखने से सहज भाव से प्राप्त किया जा सकता है ॥ १४ ।। + मूलश्लोक अनार्तः शान्तिमान मर्यो, न तिर्यङ्नाऽपि नारकः । धर्मध्यानी सदा मुक्तो, भवेन् नित्यं महेश्वरः ॥१५॥ अर्थ-मृत्यु-मरण के समय जो व्यक्ति प्रार्तध्यान से मुक्त रहता है तथा उपशम भाव में रमण करता है, वह व्यक्ति तियंचगति में या नरकगति में नहीं जाता। इसके विपरीत मृत्यु के समय धर्मध्यान करती हुई मुक्तात्मा महेश्वर-परमेश्वर पद को प्राप्त करती है ॥ १५ ॥ ॐ मूलश्लोक तप्तस्य तपश्चाऽपि, पालितस्य व्रतस्य च । पठितस्य श्रुतस्याऽपि, फलं मृत्युः समाधिना ॥ १६ ॥ अर्थ-तप के संताप का, व्रत के पालन का तथा श्रुत के पठन का जो कोई फल है तो वह 'समाधिमरण' ही है। अर्थात्-जीवन पर्यन्त उग्र तप करने वाले, निर्मलतया व्रतों का पालन करने वाले और श्रुतज्ञान के अभ्यासी की भी उत्तम माराधना का यदि कोई फल हो तो वह 'समाधिमरण' ही जानना ॥ १६ ।।

Loading...

Page Navigation
1 ... 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268