Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti

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Page 253
________________ ( १०३ ) किया। कई ने दैविक देह तथा अन्य सुखों को प्राप्त किया। इस तरह प्रसन्न मन से विधिवत् देह-शरीर को त्यागने पर स्वर्गापवर्ग के सुख स्वाधीन होते हैं। प्रतः मृत्यु भय को छोड़ देना चाहिए ॥ ४ ।। ॐ मूलश्लोक प्रागर्भाद् दुःख - संतप्तः, प्रक्षिप्तो देह - पञ्जरे । नात्मा विमुच्यतेऽन्येन, मृत्युभूमिपति विना ॥ ५॥ अर्थ-गर्भावास से ही दुःख-पीड़ित शरीररूपी पिंजड़े में डाले हुए इस जीव को मृत्यु के स्वामी यमराज के बिना कौन छुड़ा सकता है ? ॥ ५ ॥ ॐ मूलश्लोक सर्वदुःखप्रदं पिण्डं, दूरीकृत्यात्मदर्शिभिः । मृत्युमित्रप्रसादेन, प्राप्यन्ते सुखसंपदः ॥ ६ ॥ अर्थ-प्रात्मज्ञानी-प्रात्मदर्शी सभी प्रकार के दुःखों को देने वाले इस देह-शरीर को मृत्युरूपी मित्र के सहयोग से छोड़कर सुख-सम्पदामों को प्राप्त करते हैं । अर्थात् समस्त दुःखों का मूल यह देहपिण्ड है और जब देह-शरीर का संयोग सर्वथा दूर हो जाता है तब प्रात्मा अनन्त प्रानन्द को प्राप्त करती है ।। ६ ।। 卐 मूलश्लोक मृत्युकल्पद्रुमे प्राप्ते, येनाऽऽत्मार्थो न साधितः । निमग्नो जन्मजं, बाले, स पश्चात् किं करिष्यति ॥ ७ ॥ अर्थ-सुख प्राप्त कराने में कल्पवृक्ष के समान (ऐसी) मृत्यु प्राप्त होने पर भी जिसने प्रात्महित नहीं साधा अर्थात् जिसने अपनी प्रात्मा के लिए कुछ नहीं किया, वह जन्म-जरा-मृत्यु के कीचड़ में डूबा हुप्रा पीछे क्या करेगा ? ।। ७ ॥ ॐ मूलश्लोक जीर्णदेहादिकं सर्व, नूतनं जायते यतः। स मृत्युः किं न मोदाय, सतां सातोत्थितियथा ॥८॥ अर्थ-जिस मृत्यु की मदद से जीर्ण देह-शरीर, इन्द्रियाँ, बुद्धि तथा बल-शक्ति प्रादि सभी नवीन प्राप्त होते हैं, वह मृत्यु भी सत्पुरुषों के लिए प्रानन्ददायिनी क्यों नहीं होगी ! ।। ८ ।

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