Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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ॐ ह्रीं श्रीं नम:
* मृत्युञ्जय - महोत्सवः *
रचयिता
श्रीजैनधर्मदिवाकर-प्रतिष्ठा शिरोमणि - शास्त्रविशारद - कविभूषणपरमपूज्याचार्यदेवश्रीमद्विजयसुशील सूरिः ।
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[ पापप्रतिघातकाः मूलश्लोकाः ]
जिनोत्तमं जिनेन्द्रं वे, रत्नत्रय विभूषितम् ।
वन्देऽहं सच्चिदानन्दं, सम्यग् बोधोपलब्धये ॥ १ ॥
* अर्थ - सम्यक्ज्ञान की प्राप्ति हेतु सच्चिदानन्द स्वरूप, दर्शन - ज्ञान - चारित्र की रत्नत्रयी से विभूषित, जिनोत्तम जिनेन्द्र की वन्दना करता हूँ ।। १ ॥
बन्धनैर्जातं जन्मसंसारसागरे ।
कर्मणां रिगत्तरंग - दुःखाख्यैः, दुःखितोऽहं मुहुर्मुहुः ॥ २॥
मैं
* अर्थ - कर्मों के बन्धन से मेरा जन्म तरंगित दुःख- समुद्र में हुआ है । उसमें बार-बार दुःखित होता हूँ ।। २ ।।
संसारे यच्च तद् दुःखं, कर्म तस्य च कारणम्
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प्रोक्ता निवारणार्थं वै, रत्नानां च त्रयी जिनैः ॥ ३ ॥
* अर्थ-संसार में जो दुःख है, उसका कारण कर्म हैं । उसके निवारण हेतु जिनेश्वर भगवन्तों ने दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र रूप रत्नों की प्राराधना करने हेतु कहा है ।। ३ ।।
सद्दर्शनं च सुज्ञानम्, पवित्रं चरितं परम् । कर्ममोक्षाय संदिष्टा, त्वजिह्मा राजपद्धतिः ॥ ४ ॥
* अर्थ - जिनेश्वरदेव ने कर्मों से मुक्ति दिलाने हेतु सम्यक्दर्शन, ज्ञान एवं परम पवित्र चारित्र का उपदेश दिया है, जो निश्चय ही राजमार्ग है || ४ ||