Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti

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Page 206
________________ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ८।२६ सूत्र में उक्त आठ प्रकार से पुण्य प्रकृतियां कही हैं। वे मूल पाँच कर्मों की हैं। [१] सातावेदनीय (वेदनीय कर्म की), [२] सम्यक्त्व, [३] हास्य, [४] रति, तथा [५] पुरुषवेद ये मोहनीयकर्म के दर्शन मोहनीय एवं चारित्रमोहनीय कर्म की प्रकृतियाँ हैं। [३] शुभायुष्य (प्रायुष्यकर्म की), __ [४] ७ शुभ नाम (नामकर्म की प्रकृति), [५] शुभ गोत्र (गोत्र कर्म की प्रकृति) है। एवं शेष रही हुई पाप प्रकृतियाँ हैं । विशेष स्पष्टीकरण- सातावेदनीय, सम्यक्त्व मोहनीय, हास्य, रति, पुरुषवेद, शुभ आयुष्य, शुभनाम और शुभगोत्र ये पुण्यप्रकृतियाँ हैं । आयुष्यकर्म में-देव और मनुष्य ये दो आयुष्य शुभ हैं । नामकर्म की शुभप्रकृतियाँ ३७ हैं। वे नीचे प्रमाणे हैं मनुष्यगति, देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, पांच शरीर, तीन अङ्गोपाङ्ग, वज्रऋषभ नाराच संहनन, समचतुरस्र संस्थान, 'प्रशस्त वर्ण,प्रशस्त गन्ध प्रशस्त रस, प्रशस्त स्पर्श, मनुष्यगतिप्रानुपूर्वी, शुभविहायोगति, उपघात बिना की सात प्रत्येक प्रकृतियां (पराघात, उच्छ्वास, प्रातप, उद्योत, अगुरुलघु, तीर्थङ्कर, निर्माण), त्रसदशक तथा उच्चगोत्र शुभ हैं । वेदनीयकर्म में (सातावेदनीय) १, मोहनीयकर्म में (सम्यक्त्व मोहनीय आदि) ४, आयुष्य कर्म में (देव-मनुष्यायुष्य) २, नामकर्म में ३७, तथा गोत्र में १-इस तरह कुल ४५ पुण्य प्रकृतियाँ हैं। कर्मप्रकृति इत्यादि ग्रन्थों में सम्यक्त्व मोहनीय, हास्य, रति, पुरुषवेद ये चार प्रकृति रहित तथा तिर्यंच आयुष्य सहित ४२ प्रकृतियाँ पुण्य रूप बताने में आई हैं । पुण्य और पाप की व्याख्या में जो भेद है, वह इस मतान्तर में कारण लगता है। * वाचकप्रवर श्रीउमास्वाति तत्त्वार्थकार के मत में जो प्रीति-आनन्द उपजाता है अर्थात् जो गमता है वह पुण्य और इससे विपरीत वह पाप है । * कर्मप्रकृति इत्यादि ग्रन्थकारों के मत में आत्मविकास के साधक जो कर्म हैं वे पुण्य रूप हैं तथा प्रात्मविकास में बाधक जो कर्म हैं वे पाप रूप हैं। वर्ण, गन्ध, रस, और स्पर्श के कितनेक भेद पुण्यस्वरूप तथा कितनेक भेद पापस्वरूप होने से सामान्य से वर्ण चतुष्क उभय स्वरूप है। विशेष से रक्त, पीत तथा श्वेत ये तीन वर्ण, सुरमिगन्ध, कषाय, अम्ल और मधुर ये तीन रस, लघु, मृदु, स्निग्ध तथा उष्ण ये चार स्पर्श, इस तरह ग्यारह पुण्य स्वरूप, एवं शेष नौ पाप स्वरूप हैं।

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