Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
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(१) कर्म के जो अणुजीव श्रात्मा के ज्ञान गुरण को दबाते हैं, उनको ज्ञानावरणीय कर्म कहा
जाता है।
(२) कर्म के जो अणु जीव आत्मा के दर्शन गुरण का अभिभव करते हैं वे कर्माणु दर्शनावरणीय कर्म कहे जाते हैं ।
(३) कर्म के जो अणुजीव श्रात्मा के अनन्त अव्याबाध सुख को रोककर बाह्य सुख और दुःख देवे, कर्म के उन अणुत्रों को वेदनीय कर्म कहा जाता है ।
(४) आत्मा के स्वभाव में रमणता रूप चारित्र को दबाने वाले जो कर्माणु हैं वे मोहनीय कर्म कहे जाते हैं ।
( ५ ) अक्षयस्थिति गुरण को रोक करके जन्म और मरण के अनुभव कराने वाले कर्म के जो अणु हैं वे प्रायुष्य कर्म कहे जाते हैं ।
(६) श्ररूपीपने को दबाकर मनुष्यादि पर्यायों का जो अनुभव करावे वे कर्माणु नामकर्म कहे जाते हैं ।
(७) अगुरुलघुपने का अभिभव करके उच्चकुल और नीचकुल का व्यवहार कराने वाले कर्मा गोत्रकर्म कहे जाते हैं ।
(८) अनन्तवीर्यगुण को दबाने वाले कर्माणु अन्तराय कर्म कहे जाते हैं ।
विशेष – विश्व में प्रत्येक वस्तु सामान्य तथा विशेष इस तरह दो प्रकार की है। वस्तु की विशेष रूप में जो बोधि वह ज्ञान तथा सामान्य रूप में जो बोधि वह दर्शन है ।
ज्ञान और दर्शन गुरण से जीव आत्मा में भूत, भावी तथा वर्तमान इन तीन कालों की समस्त वस्तुओं को सामान्य रूप में अथवा विशेष रूप में बोध करने की शक्ति है, तो भी अभी अपने को भूत एवं भावी काल की वस्तुओंों की बात तो दूर करें, वर्तमान काल की वस्तुओं में भी कुछ ही वस्तु-पदार्थों का सामान्य या विशेष रूप में जो बोध होता है, वह भी इन्द्रियों की सहायता से ही होता है। इसका कारण है ज्ञानावरणीय तथा दर्शनावरणीय कर्म - प्रकृतियाँ। इन दोनों प्रकृतियों ने जीवात्मा की ज्ञान दर्शन की शक्ति दबा दी है किन्तु ऐसा होते हुए भी वे आत्मा के ज्ञान-दर्शन गुण 'को सर्वथा नहीं दबा सकी हैं ।
जैसे सूर्य पर बादलों का आवरण होते हुए भी बादलों के छिद्रों द्वारा सूर्य का प्रल्प भी प्रकाश पड़ता है, वैसे ही जीव आत्मा रूपी सूर्य पर कर्मप्रकृति रूपी बादलों का आवरण होते हुए भी क्षयोपशम रूपी छिद्रों द्वारा यत् किंचित् ज्ञान-दर्शन गुण रूपी प्रकाश व्यक्त प्रर्थात् स्पष्ट होता है ।
* अब आत्मा का तीसरा गुरण 'अनंत अव्याबाध सुख' है। इस गुरण के प्रताप से जीवआत्मा में भौतिक किसी भी वस्तु की अपेक्षा बिना स्वाभाविक सहज सुख विद्यमान होते हुए भी अपन दुःखी होते हैं । जो यत् किंचित् सुख प्राप्त होता है, वह भी भौतिक वस्तुओं द्वारा। इसमें वेदनीय कर्म कारण है ।