Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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१० ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ८४ इस तरह प्रस्तुत में कर्म के रस में भी जानना। इसकी स्पष्टता करते हुए कहा है कि, जैसे-शेलड़ी का रस सुख देता है, वैसे शुभ कर्म का फल भी सुख देता है तथा जैसे लीम्बड़ा का रस दुःख देता है, वैसे अशुभ कर्म का फल भी दुःख देता है। इसलिए शास्त्र में शुभकर्म के रस को शेलड़ी के रस से और अशुभ कर्म के रस को लीम्बड़ा के रस से समझाने में आया है। जैसेजैसे शेलड़ी का रसवधु बले वैसे-वैसे वह अधिक मधुर बनता है। लीम्बड़ा का रस भी जैसे-जैसे वधु बले वैसे-वैसे वह अधिक कटु-कड़ आ बनता है। इसी तरह कर्म की शुभ प्रकृति में जैसे-जैसे अधिक तीव्र रस वैसे-वैसे इसका शुभ फल भी अधिक मिलता है तथा कर्म की अशुभ प्रकृति में जितना-जितना अधिक तीव्र रस उतना-उतना इसका अशुभ फल भी अधिक मिलता है।
जैसे उदाहरण तरीके-दो व्यक्तियों को असाता वेदनीय कर्म के उदय से दुःख होता है तो भी एक व्यक्ति को दुःख का अनुभव अधिक होता है, जबकि दूसरे व्यक्ति को दुःख का अनुभव अल्प होता है। इसका क्या कारण है ? तो समाधान यह है कि रस की तरतमता से ऐसा होता है।
(४) प्रदेशबन्ध-कर्म के अणुओं का जीव आत्मा के साथ जब सम्बन्ध होता है तब इन कर्माणुषों की आठों प्रकृतियों में अर्थात् कर्मों में जो वहेंचणी होती है, उसे प्रदेशबन्ध कहा जाता है। इसको समझाने के लिए शास्त्र में मोदक का दृष्टान्त कहने में आया है। भिन्न-भिन्न प्रकार के मोदकों में भिन्न-भिन्न प्रकृति अर्थात् स्वभाव होता है। जैसे-जो मोदक वात-विनाशक द्रव्यों से बनाये हुए हों, उन मोदकों का स्वभाव वात-वायु को शमन करने का होता है तथा जो मोदक पित्त-विनाशक द्रव्यों से बनाये हुए हों, उन मोदकों का स्वभाव पित्त को शान्त करने का बनता है। कफ-विनाशक द्रव्यों से बनाये हुए मोदकों का स्वभाव कफ का विनाश करने का होता है। इस तरह भिन्न-भिन्न जाति के मोदकों में किसी प्रकार के विकार बिना टिके रहने की स्थिति भी भिन्नभिन्न होती है।
अमूक प्रकार के मोदक एक ही दिन खाद्य रहते हैं। दूसरे दिन ही उनमें विकृति-विकार आ जाने से वे अखाद्य बन जाते हैं। जबकि कितनेक मोदक पाठ दिन तक, पन्द्रह दिन तक यावत एक मास तक भी खाद्य रहते हैं। भिन्न-भिन्न मोदकों में मधुरता अथवा स्निग्धता इत्यादि रस भी न्यूनाधिक होते हैं। जिन मोदकों में गलपण अधिक डालने में आये हों वे मोदक अधिक मधुर होते हैं। अल्प गलपण डालकर बनाये हुए मोदकों में मिठास अल्प होती है। इसी तरह अधिक घृत-घी डालकर बनाये हुए मोदकों में स्निग्धता अर्थात् चिकनाहट विशेष होती है। तथा अल्प घत-घी डालकर बनाये गए मोदकों में स्निग्धता-चिकनाहट अल्प ही होती है। एवं विशेष मेथी डाल करके बनाये हुए मोदकों में विशेष कटु-कड़वास तथा कम मेथी डाल करके बनाये हुए मोदकों में कम कटु-कड़वास होती है। भिन्न-भिन्न मोदकों में करिणया रूप प्रदेशों का प्रमाण भी न्यूनाधिक होता है। जैसे कोई मोदक ५० ग्राम का, कोई मोदक १०० ग्राम का तो कोई मोदक २०० ग्राम का भी होता है।
उसी तरह प्रस्तुत में भी इधर किसी कर्म में ज्ञान को पावरने का स्वभाव, किसी कर्म में दर्शन को अभिभव करने का स्वभाव, इसी तरह भिन्न-भिन्न कर्मों का भिन्न-भिन्न स्वभाव है। किसी कर्म की तीस कोडा-कोडी सागरोपम की स्थिति, किसी कर्म की बीस कोडा-कोडी सागरोपम की