Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
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इस तरह जीव-प्रात्मा द्वारा ग्रहण किए हए कर्म पुद्गलज्ञानावरणीयादि आठ कर्म प्रकृति रूप में परिणत होते हैं, उसको प्रकृतिबन्ध कहते हैं। वह दूध नियमित काल-समय तक अपने स्वभाव में रहता है। उस कालमर्यादा को स्थितिबन्ध कहते हैं। तथा दूध की मधुरता में जो तीव्रता मन्दता रहती है, उसको अनुभाववन्ध अर्थात् रसबन्ध कहते हैं। एवं तत् योग्य पुद्गलों के परिमाण का निर्माण भी उसी समय होता है, उसको प्रदेशबन्ध कहते हैं ।
इसी को कर्मग्रन्थ में मोदक-लड्डू के दृष्टान्त से समझाया है ।
(१) प्रकृतिबन्ध-प्रकृति यानी स्वभाव । कर्म के जिन अणुओं का आत्मा के साथ सम्बन्ध हुआ उन अणुषों में से कौनसे-कौनसे अणु जीव-आत्मा के कौनसे कौनसे गुण को दबायेंगे ? जोव-प्रात्मा को कैसो-कैसी असर पहुंचायंगे? इस तरह इसके स्वभाव का निर्णय होता है। कर्माणुओं के स्वभावनिर्णय को प्रकृतिबन्ध कहने में आता है।
आत्मा में अनन्तगुण हैं। उनमें मुख्य गुण अनन्तज्ञानादिक पाठ हैं ।
कर्माणुओं का प्रात्मा के साथ में सम्बन्ध होता है. अर्थात् प्रदेशबन्ध होता है। तब बँधाए हुए कर्माणुओं में से अमुक अणुनों में ज्ञानगुण का अभिभव करने का अर्थात् दबाने का स्वभाव नियत होता है । अमुक कर्माणुओं में दर्शनगुण को पावरने का अर्थात् दबाने का स्वभाव नक्की होता है। अमुक कर्माणुषों में जीव-आत्मा के अव्याबाघ सुख को रोक करके बाह्यसुख या दुःख देने का स्वभाव नियत होता है। कितनेक कर्माणुषों में चारित्र गुण को दबाने का गुण नक्की होता है। इस तरह अन्य गुणों में भी समझना चाहिए।
कर्माणुगों के इस स्वभाव का प्राश्रय कर जीव-प्रात्मा के साथ बँधे हुए कर्माणुओं के मूल प्रकार भेद पाठ पड़ते हैं। तथा उनके उत्तर प्रकार भेद एक सौ बीस (१२०) पड़ते हैं।
मूल प्रकृतिबन्ध पाठ प्रकार के हैं और उत्तरप्रकृतिबन्ध एक सौ बीस (१२०) प्रकार के हैं ।
(२) स्थितिबन्ध-कर्माणुओं का आत्मा के साथ जब सम्बन्ध होता है तब उसी समय इनमें जीव-प्रात्मा के उन-उन गुणों को आवरने का अर्थात दबाने का इत्यादि स्वभाव नियत होता है। उसी प्रकार उन-उन कर्माणुओं में वह स्वभाव कहाँ तक रहेगा, अर्थात् वे कर्म जीव-आत्मा में कितने समय तक रुकेंगे वह भी उसी समय निश्चित हो जाता है। कर्माणुओं में जीव-प्रात्मा को प्रभावित करने की अवधि का निर्णय यह स्थितिबन्ध है।
कर्मों की स्थिति के उत्कृष्ट तथा जघन्य ये मुख्य दो भेद हैं। अधिक में अधिक स्थिति वह उत्कृष्टस्थिति कही जाती है। तथा न्यून में न्यून अर्थात् कम में कम स्थिति वह जघन्यस्थिति कही जाती है।
(३) रसबन्ध-कर्मों में जीव प्रात्मा के गुणों को दबाने का स्वभाव है। किन्तु वह स्वभाव प्रत्येक समय समान नहीं होता, न्यूनाधिक भी होता है।
जैसे-मद्य में केफ करने का स्वभाव है, किन्तु हरेक प्रकार का मद्य एक सरीखा केफ उत्पन्न नहीं करता। अमुक प्रकार का मद्य अतिशय केफ उत्पन्न करता है। प्रमुक प्रकार का मद्य उससे