Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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* सूत्रार्थ - दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय तथा वीर्यान्तराय ये पाँच 'अन्तरायकर्म' के भेद हैं ।। ८-१४ ।।
अष्टमोऽध्यायः
5 विवेचनामृत 5
वस्तु प्राप्त होने पर भी उपभोग नहीं कर सके या इच्छित वस्तु की प्राप्ति नहीं हो, उसको 'अन्तराय कर्म' कहते हैं । वह पांच प्रकार का है
[३] भोगान्तराय, [४] उपभोगान्तराय,
[१] दानान्तराय, [२] लाभान्तराय, तथा [५] वीर्यान्तराय ।
* दानान्तराय - द्रव्य भी हो, पात्र का योग भी हो, पात्र को देने से लाभ होगा, ऐसा ज्ञान भी हो तो भी जिसके उदय से दान देने का उत्साह नहीं होता है, अथवा उत्साह होते हुए भी अन्य किसी कारण से दान नहीं दे सके, उसे 'दानान्तराय कर्म' कहा जाता है ।
* लाभान्तराय - दाता विद्यमान हो, देने योग्य चीज वस्तु भी विद्यमान हो, मांगणी भी कुशलता से की हो, ऐसा होते हुए भी जिसके उदय से याचक नहीं प्राप्त कर सके, वह 'लाभान्तराय कर्म' कहा जाता है । इस कर्म के उदय से प्रयत्न करने पर भी इष्ट वस्तु का लाभ नहीं होता है ।
* भोगान्तराय - वैभव प्रादि हो, भोग की वस्तु विद्यमान हो, भोगने की अभिलाषा - इच्छा मी हो, ऐसा होते हुए भी जिसके उदय से इष्टवस्तु का भोग नहीं कर सके, वह 'भोगान्तराय कर्म' कहा जाता है।
* उपभोगान्तराय - वैभवादिक हो, उपभोग योग्य वस्तु भी हो, उपभोग करने की अभिलाषा इच्छा भी हो, ऐसा होते हुए भी जिसके उदय से उपभोग नहीं कर सके, वह 'उपभोगान्तराय कर्म' कहा जाता है ।
* वीर्यान्तराय - जिस कर्म के उदय से निर्बलता प्राप्त हो, वह 'वीर्यान्तराय कर्म' कहा जाता है ।
विशेष - मूल ज्ञानावरणादि आठ प्रकृति के कुल १४८ भेद होते हैं । [५+ +२+२८ + ४ + (६५ + २८) ९३ + २ + ५
=
१४८]
तत्त्वार्थाधिगम सूत्र के इस आठवें अध्याय के छठे सूत्र में मूल प्रकृति के कुल ६७ भेद गिनाये हैं । कारण कि वहाँ चौदह पिण्ड प्रकृतियों के पेटे विभाग की गिनती करने में नहीं श्रई है।
चौदह पिण्डप्रकृतियों के भेदों को गिनने से ५१ भेद होते हैं । अर्थात् – कुल ६७ + ५१ १४८ भेद होते हैं ।
ये १४८ भेद तथा बन्धन के १० भेद मिलाने से १५८ भेद सत्ता की अपेक्षा होते हैं ।
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