Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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४० ] श्रीतत्त्वार्याधिगमसूत्रे
[ ८।१३-१४ से (बन्धन के १५, संघात के ५, तथा वर्णादि चार के १६ इम) ३६ भेद कम हो जाने से कुल ६७ भेद होते हैं। बन्ध, उदय और उदीरणा को पाश्रय करके ६७ तथा सत्ता के आश्रय ६३ वा १०३ संख्या गिनने में आती है। (८-१२)
* गोत्रकर्मणो मेदाः * 卐 मूलसूत्रम्
उच्चर्नीचश्च ॥८-१३ ॥
* सुबोधिका टीका * उच्चगोत्रं नीचगोत्रमिति द्वौ भेदो गोत्रकर्मणः । उच्चैर्गोत्रं नीचर्गोत्रं च । तत्रोच्चैर्गोत्रं देशजातिकुलस्थानमानसत्कारेश्वर्याद्युत्कर्षनिर्वर्तकम् । विपरीतं चण्डालमुष्टिकव्याधमत्स्यबन्धदास्यादिनिर्वर्तकमिति ।। ८-१३ ।। * सूत्रार्थ-उच्चगोत्र और नीचगोत्र ये दो गोत्रकर्म के भेद हैं ।। ८-१३ ।।
+ विवेचनामृत देश, जाति, कुल, स्थान, मान, सत्कार तथा ऐश्वर्यादि की प्रकर्षता 'उच्चता' के साधक को उच्चगोत्र तथा इससे विपरीत को नीचगोत्र कहते हैं। अर्थात्- उच्च और नीच ये दो गोत्र के भेद हैं। जिसके उदय से जीव-प्रात्मा अच्छे उच्च कूल में जन्मे, वह 'उच्च गोत्रकर्म है। तथा हीन-नीच कुल में जन्मे, वह 'नीचगोत्रकर्म' है।
धर्म का तथा नीति का रक्षण करने से बहुत काल से प्रख्याति पाये हुए ऐसे इक्ष्वाकुवंश प्रमुख उच्च कुल विश्व में सुप्रसिद्ध है। अधर्म और अनीति का सेवन करने से निन्द्य बने हुए कसाई और मच्छीमार प्रादि के कुल नीच कुल हैं ।। ८-१३ ॥
* अन्तरायकर्मणोः भेदाः * 卐 मूलसूत्रम्
दानादीनाम् ॥ ८-१४॥
* सुबोधिका टीका * दानादौ विघ्नकर्तारोऽन्तरायाः सन्ति । यथा
[१] दानान्तरायः, [२] लाभान्तरायः, [३] भोगान्तरायः, [४] उपभोगान्तरायः, [५] वीर्यान्तराय इति ।
इत्थं तस्य पञ्च भेदा भवन्ति ।। ८-१४ ।।