Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti

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Page 198
________________ ४८ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ८।२३ [४] मोहनीय-मोहनीयकर्म मदिरा के समान है। जैसे मदिरा का पान करने से अर्थात् पीने से मनुष्य विवेकरहित हो जाता है, हिताहित का विचार भी नहीं कर सकता है, इतना ही नहीं किन्तु नहीं करने लायक अयोग्य चेष्टा भी करता है। वैसे ही मोहनीयकर्म के योग से जीव-प्रात्मा विवेकरहित बनता है। तथा उसके लिए हेय क्या है ?, उपादेय क्या है ? इत्यादि विचार भी नहीं कर सकता है, परिणामे अयोग्य प्रवृत्ति करता है। [५] प्रायुष्य-आयुष्यकर्म बेड़ी के समान है। जैसे बेड़ी में बँधा हुमा जीव-आत्मा अन्यत्र नहीं जा सकता है, वैसे आयुष्य रूपी बेड़ी में बंधा हुआ जीव-प्रात्मा जहाँ तक वर्तमान गति का प्रायुष्य पूर्ण न हो जाए वहाँ तक अन्य-दूसरी गति में वह नहीं जा सकता है । [६] नाम-नामकर्म चित्रकार के समान है। जैसे चित्रकार मनुष्य, हाथी इत्यादि के भिन्न-भिन्न चित्र-प्राकार चित्रित करते हैं; वैसे ही नामकर्म अरूपी जोव-यात्मा के गति-जाति, शरीर आदि अनेक रूप तैयार करता है। [७] गोत्र-गोत्रकर्म कुलाल (-कुम्भकार) के समान है। जैसे कुलाल-कुम्भकार अच्छे और खराब दो प्रकार के घट-घड़े बनाते हैं। उसमें अच्छे घट-घड़े की मंगल कलश रूप में स्थापना होती है, तथा चन्दन, अक्षत, माला आदि से पूजा होती है। एवं खराब घट-घड़े में मद्य (मदिरा) आदि भरने में आती है। इसलिए वे घट-घड़ लोक में निन्द्य गिने जाते हैं। वैसे ही गोत्रकर्म के योग से उच्च तथा नीच कूल में जन्म पाकर जीवआत्मा की उच्च रूप में एवं नीच रूप में गिनती होती है। [८] अन्तराय-अन्तरायकर्म भंडारी के समान है। जैसे दान करने की इच्छा वाले राजा आदि को उसका लोभी भंडारी दान करने में विघ्न करता है, वैसे ही अन्तरायकम दान आदि में विघ्न करता है। 5 कर्म-उपमा-फल कोष्ठक 卐 कर्म उपमा [१] ज्ञानावरणीय |* आंख पर पट्टी के समान | विशेष बोध रूप ज्ञान न हो । [२] दर्शनावरणीय |* द्वारपाल के समान । सामान्य बोध रूप ज्ञान न हो। [३] वेदनीय * मधु से लिप्त असि की 0 दुःख का अनुभव, सुख भी परिणामे तीक्ष्ण धार के समान दुःख देने वाला बने । [४] मोहनीय * मदिरा के समान 0 विवेक तथा हितकारी प्रवृत्ति नहीं। [५] आयुष्य * बेड़ी के समान - मनुष्यगति आदि में रहना पड़े। [६] नाम * चित्रकार के समान गति, जाति आदि विकार । [७] गोत्र * कुलाल के समान 0 उच्च-नीच का व्यवहार करना । [८] अन्तराय * भण्डारी के समान 0 दान आदि में अन्तराय करना ॥८-२३ ।। फल

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