Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
View full book text
________________
२६ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ८।१० * मान-(१) संज्वलन मान नेतर समान है। जैसे नेतर सहेलाइ से वाल सकते हैं, वैसे संज्वलन मान के उदय वाला जीव-आत्मा निजमाग्रह का त्याग करके शीघ्र नमने के लिए तैयार होता है। जैसे ब्राह्मी-सुन्दरी के वाक्यों से महात्मा बाहुबलीजी का संज्वलन का मान दूर हुआ और वे केवलज्ञान पाए ।
(२) प्रत्याख्यानावरण मान काष्ठ समान है। जैसे काष्ठ को वालने में अल्प कष्ट पड़ता है, वैसे ही प्रत्याख्यानावरण मान के उदय वाला जीव-प्रात्मा अल्प प्रयत्न करने से नमता है, अर्थात् नम्र बनता है।
(३) अप्रत्याख्यान मान अस्थि समान है। जैसे अस्थि-हड्डी को वालने में अतिकष्ट पड़ता है, वैसे ही अप्रत्याख्यान मान के उदयवाला जीव-प्रात्मा अतिकष्ट से विलम्ब से, नमने के लिए तैयार होता है।
(४) अनन्तानुबन्धी मान पत्थर-पाषाण के स्तम्भ समान है। जैसे पत्थर-पाषाण का स्तम्भ नहीं नमा सकते हैं, वैसे अनन्तानुबन्धीमान के उदय वाला जीव-प्रात्मा नमे, यह अशक्य है। जैसे-नेतर इत्यादि वस्तु-पदार्थ अक्कड़ होते हैं, वैसे मान कषाय वाला जीव-आत्मा अक्कड़ रहता है। इसलिए यहाँ मान की नेतर इत्यादि अक्कड़ वस्तु-पदार्थ के साथ समानता है।
* माया-(१) यह संज्वलन माया इन्द्रधनुष की रेखा समान है। जैसे आकाश में होती इन्द्रधनुष की रेखा शीघ्र विनाश पाती है, वैसे ही संज्वलन की माया शीघ्र दूर होती है ।
(२) प्रत्याख्यानावरण माया वृषभ-बलद आदि के मूत्र-पेशाब की धारा समान है। जैसे मूत्र की धारा (ताप इत्यादि से) जरा विलम्बे विनाश पाती है, वैसे ही यह माया अल्प विलम्वे विनाश पाती है।
(३) अप्रत्याख्यान माया-यह माया घंटा के सींग के समान है। जैसे घंटा के सींग की वक्रता कष्ट से दूर होती है, वैसे ही यह माया अतिकष्ट से दूर होती है।
(४) अनन्तानबन्धी माया-यह माया घनबांस की जड समान है। जैसे घनबांस की जड़ की वक्रता दूर नहीं हो सकती है, वैसे अनन्तानुबन्धी माया प्रायः दूर नहीं होती। जैसे इन्द्रधनुष की रेखा आदि वक्र होती है वैसे ही मायावी जीव-वक्र होते हैं। इसलिए यहाँ माया को इन्द्रधनुष की रेखा आदि की उपमा दी है।
* लोभ-(१) संज्वलन लोभ हलदर के रंग समान है। जैसे वस्त्र में लगा हुआ हलदर का रंग सूर्य का ताप लगने मात्र से शीघ्र दूर हो जाता है, वैसे ही संज्वलन का लोभ कष्ट बिना, शीघ्र दूर होता है।
(२) प्रत्याख्यानावरण लोभ दीपक-दीवा की मेष समान है। जैसे वस्त्र में लगी हुई दीवा की मेष (काजल) जरा कष्ट से दूर होती है, वैसे ही यह लोभ अल्प कष्ट से विलम्बे दूर होता है।