Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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३४ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ८।१२ * जिस कर्म के उदय से देह-शरीर का वर्ण कृष्ण-काला हो, वह कृष्णवर्णनामकर्म है। इस माफिक अन्य-दूसरे नीलादि वर्ण के सम्बन्ध में भी जानना।
[१०] गन्ध-गन्ध के दो भेद हैं-सुगन्ध और दुर्गन्ध ।
जिस कर्म के उदय से देह-शरीर सुरभित सुगन्धित हो, वह सुगन्ध नामकर्म कहा जाता है । तथा जिस कर्म के उदय से देह-शरीर दुरभि-दुर्गन्धित हो, वह दुर्गन्ध नामकर्म कहा जाता है ।
_ [११] रस-रस यानी स्वाद । वह पांच प्रकार का है--(१) तिक्त (तीखा), (२) कटु (कड़वा), (३) कषाय (तूरा), (४) अम्ल (खट्टा) तथा (५) मधुर (मीठा)।
[अन्य ग्रन्थों में लवण रस के साथ 'छह' रस कहे गये हैं।]
* जिस कर्म के उदय से देह-शरीर तिक्त हो अर्थात् शरीर का रस तीखा हो, वह तिक्तरसनामकर्म कहलाता है। इसी तरह अन्य-दूसरे रस की भी व्याख्या जाननी।
[१२] स्पर्श-स्पर्श के आठ भेद हैं, जिनके नाम नीचे प्रमाणे हैं
(१) कर्कश, (२) मृदु (कोमल), (३) गुरु, (४) लघु, (५) स्निग्ध, (६) रुक्ष, (७) शीत और (८) उष्ण ।
* जिस कर्म के उदय से देह-शरीर का स्पर्श कर्कश हो, वह कर्कश नामकर्म कहलाता है । इसी तरह अन्य-दूसरे स्पर्श विषे भी जानना।
[१३] प्रानुपूर्वी-इसका उदय वक्रगति में होता है। जीव-आत्मा मृत्यु-मरण पा करके अन्य-दूसरी गति में वक्र (बांकी) तथा ऋजु (सरल) इन दो प्रकार की गति से जाता है। उसमें जब ऋजुगति से परभव के स्थान में जाता है, तब एक ही समय में अपनी उत्पत्ति के स्थान में
जाता है। इस समय उसको किसी भी जाति की मदद-सहायता की आवश्यकता रहती नहीं है। परन्तु जब वक्रगति से परभव के स्थान में जाता है, तब अपनी उत्पत्ति के स्थान में पहुंचते हए दो, तीन या चार समय लग जाते हैं। इस वक्त उसको गति करने में मदद-सहायता की जरूरत पड़ती है।
जैसे किसी व्यक्ति को चार-पाँच क्लाक की मुसाफिरी करनी हो तो उसे बीच में नवीन आहार की जरूरत नहीं पड़ती है क्योंकि जाते वक्त जो आहार लिया है, उसकी मदद-सहायता से ही इष्ट स्थान पर पहुंच जाता है। किन्तु दो दिन या उससे अधिक दिन की मुसाफिरी करनी हो तो उसको मार्ग में नवीन पाहार की जरूरत पड़ती है। वैसे ही यहाँ पर भी ऋजुगति से एक समय में उत्पत्ति स्थान पर पहुंचने वाले जीव-प्रात्मा को विशिष्ट नवीन मदद-सहायता की जरूरत पड़ती नहीं है । अपने ही पूर्वभव के आयुष्य के व्यापार से वह इष्ट स्थान पर पहुंच जाता है। अपने पूर्व भव के आयुष्य का व्यापार एक ही समय रहता है। इससे अन्य-दूसरे प्रादि समयों में गतिगमन करने में नूतन-नवी मदद की जरूरत पड़ती है। यहाँ पर अन्य-दूसरे आदि समयों में आकाश