Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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७।३० ] सप्तमोऽध्यायः
[ ७७ व्रत का ध्येय (जीवरक्षा) सचवाता नहीं है। इसलिये यहाँ पर परमार्थ से तो व्रतभंग है। यहां पर प्रांशिक व्रतभंग और प्रांशिक व्रतपालन होने से अतिचार लगते हैं।
(३) सचित्त संमिश्र प्राहार–सचित्त, अचित्त, मिश्रित पदार्थ का आहार करना। अर्थात्-अल्पभाग सचित्त और अल्पभाग अचित्त हो ऐसा पाहार करना। जैसे-तल तथा खसखस इत्यादि से युक्त मोदक (लड्डू) आदि का प्राहार करना।
(४) अभिषव प्राहार-गरिष्ठ, पुष्ट और इन्द्रियों को बलवान करने वाला रसयुक्त पदार्थ अभिषव कहा जाता है। इस तरह के पदार्थों का सेवन करना अभिषवाहार नाम का अतिचार है।
(५) दुषपक्व पाहार-अधपके या रंधे पदार्थों को सेवन करना। अर्थात्--बराबर नहीं रन्धाने से कंइक पक्व तथा कांइक अपक्व काकड़ी आदि का आहार करना ।
ये उपभोग परिभोग परिमाण व्रत के अतिचार हैं ।
* धर्मरत्न प्रकरण इत्यादि ग्रन्थों में यहाँ पर कहे हुए अन्तिम तीन अतिचारों के स्थान में अपक्वौषधि-भक्षणता, दुष्पक्वौषधि-भक्षणता तथा तुच्छौषधि-भक्षणता अतिचारों के उल्लेख हैं।
(३) अपक्वौषधि भक्षणता-रँधे बिना वस्तु का आहार लेना। जैसे-सचित्त कण वाले लोट को अचित्त समझ करके वापरना।
(४) दुष्पकवौषधि भक्षणता-बराबर नहीं रंधाने से कुछ पक्व तथा कुछ अपक्व ककड़ी आदि का आहार करना। ऐसा अर्थ यहां पर भी समझना।
(५) तुच्छौषधि भक्षणता-जिसका प्राहार करने से तृप्ति नहीं हो, ऐसे पापड़ तथा बोर आदि वस्तु वापरनी। ये उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत के पाँच अतिचार जानना। * प्रश्न--तुच्छ औषधि (जिससे तृप्ति नहीं हो ऐसी चीज-वस्तुनों को) जो सचित्त वापरते
हैं, तो उसी का समावेश सचित्त आहार नाम के प्रथम-पहिले अतिचार में हो
जाता है। अब जो अचित्त वापरते हैं तो वह अतिचार ही गिना जाता नहीं ? उत्तर-यह कथन सत्य है, किन्तु अचित्त वापरने में व्रत के ध्येय का पालन नहीं होने से परमार्थ से व्रत की विराधना होती है।
जो आराधक सावध से-पाप से प्रति डरता हो और जिसने लोलुपता कम की हो तो वह श्रावक सचित्त का प्रत्याख्यान यानी पच्चक्खाण करता है। जिससे तृप्ति न होती हो ऐसी वस्तु वापरने में लोलुपता कारण है। कारण कि, उस वस्तु से शरीर को पुष्टि मिलती नहीं है। इससे जो श्रावक ऐसी चीज-वस्तु को वापरे तो उसमें लोलुपता अधिक है, यह सिद्ध होता है । इसमें देह-शरीर को लाभ नहीं होता है, तथा पाप विशेष होता है।
इस अपेक्षा से तुच्छ औषधिका भक्षण भी अतिचार कहा जाता है ।। ७-३० ।।