Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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श्रीतस्वार्थाधिगमसूत्रे
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(३) विचिकित्सा - विचिकित्सा यानी सन्देह संशय । जहाँ मतिभेद या विचारभेद का प्रसंग उपस्थित हो, वहाँ पर स्वमति से निर्णय किये बिना ही समस्त के वचनों को यथार्थ - वास्तविक रूप से मान लेना । जैसे- श्रमरण भगवान महावीर ने कहा वह भी ठीक है, और कपिलादिक का कथन भी ठीक है । इस प्रकार की मंदबुद्धि को विचिकित्सा प्रतिचार कहते हैं ।
सारांश यह है कि-धर्म के फल का सन्देह - संशय रखना । मेरी की हुई तपादिक साधना का फल मुझे मिलेगा कि नहीं ?
जैसे लोक में खेती आदि की हुई क्रियायें अनेक बार सफल होती हैं और अनेक बार सफल नहीं भी होती हैं, वैसे इस जैन धर्म के पालन से ( दानादिक के सेवन से ) इसका फल मुझे मिलेगा कि नहीं ? इस तरह सन्देह - संशय रखना ।
* शंका और विचिकित्सा में भिन्नता - शंका तथा विचिकित्सा इन दोनों में शंका तो है, परन्तु शंका का विषय भिन्न-भिन्न है ।
शंका अतिचार में शंका का विषय-पदार्थों का धर्म है, परन्तु विचिकित्सा प्रतिचार में शंका का विषय धर्म का फल है । अर्थात् - शंका रूप अतिचार में पदार्थ की तथा धर्म की शंका होती है, और विचिकित्सा में धर्म के फल की शंका होती है । अथवा विचिकित्सा यानी जुगुप्सा । श्रमरणश्रमणी के यानी साधु-साध्वी के मलिन शरीर तथा मलिन वस्त्रादिक को देखकर दुगंछा करमी, कि ये लोग जल-पानी से स्नान भी नहीं करते हैं । सचित्त जल- पानी में भले दोष लगता हो, किन्तु अचित्त जल - पानी से स्नान करे तथा वस्त्रप्रक्षालन भी करे तो क्या बाधा आती है ? इस तरह साधु-साध्वी की निन्दा करनी वह विचिकित्सा प्रतिचार है ।
(४) अन्यदृष्टि प्रशंसा - सर्वज्ञविभु श्रीजिनेश्वर तीर्थंकर भगवन्त भाषित दर्शन को छोड़कर अन्य बौद्ध आदि दर्शन की प्रशंसा करनी। जैसे कि वे पुण्यवान हैं। उनका जन्म सफल है, तथा उनका धर्म श्रेष्ठ है । उनमें दाक्षिण्यादिक गुण रहे हुए हैं । इत्यादि रूप में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष प्रशंसा करनी । इस प्रकार की प्रशंसा से अपरिपक्व बुद्धिवाले जीव उनके गुणों से आकर्षित होकर प्राप्त किये हुए सम्यग्दर्शन- सम्यक्त्व - समकित गुण को खो दे यह सम्भवित है । इसे अन्यदृष्टि की प्रशंसा प्रतिचार कहते हैं ।
(५) श्रन्यदृष्टि संस्तवः - संस्तव यानी परिचय । अन्यदर्शनवाले लोकों के साथ रहना, परिचय रखना । उनके साथ प्रतिपरिचय रखने से उनके दर्शन की क्रियाओं व सिद्धान्तों को जसे सुनने से सम्यक्त्व - समकित से पतित होने की सम्भवता है' । अर्थात् जिसकी दृष्टि यथार्थ नहीं हो, उसकी प्रशंसा या स्तवना करनी सम्यकदृष्टि के लिए प्रतिचार रूप है । क्योंकि
१.
जिसकी बुद्धि अपरिपक्व हो, ऐसे लोग अन्य के परिचय से भ्रमित हो जाँय यह स्वाभाविक-सहज है । इससे तो स्वदर्शन में – जैनदर्शन में रहे हुए पासथ्था आदि कुसाधुनों के साथ भी एक रात्रि भी रहने का निषेध है ।