Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
View full book text
________________
१८ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ६ सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनेयादि चत्वारः जीवाः चतुर्विधभावयुक्ताः भवन्ति । प्रमोदो नाम विनयप्रयोगो वन्दनस्तुतिवर्णवादवैयावृत्यकरणादिभिः सम्यक्त्वज्ञानचारित्रतपोऽधिकेषु साधुषु परात्मोभयकृतपूजाजनितः सर्वेन्द्रियाभिव्यक्तो मनः प्रहर्ष इति । कारुण्यं क्लिश्यमानेषु अर्थात् कारुण्यमनुकम्पा दीनानुग्रहेति । तन्महामोहाभिभूतेषु मति-श्रुत-विभङ्गाज्ञानपरिगतेषु विषयतृषाग्निना प्रदह्यमानमानसेषु हिताहितप्राप्तिपरिहार-विपरीतप्रवृत्तिषु नानाक्लेशादितेषु दारिद्रययुक्तकृपणानाश्रितबालमोमुहवृद्धेषु प्राणिषु प्रभावयेत् । तथा च प्रभावयन् हितोपदेशादिभिस्तान् अनुगृह्णातीति । अविनीतेषु माध्यस्थ्यम्, अविनेया नाम मृत्-पिण्ड-काष्ठकुड्यभूता ग्रहणधारणविज्ञानोहापोहवियुक्ता महामोहाभिभूता दुष्टावग्राहिताश्च । तेषु अपि प्रौदासीन्यं माध्यस्थ्यं वा भावयेत् । अर्थात्-न केनाऽपि वैरभावेन प्रवर्तनं मैत्रीभावम् । क्षमेऽहं सर्वसत्त्वानां, क्षमयेऽहं सर्वसत्त्वान् । मैत्री मे सर्वसत्त्वेषु, न वैरं मम केनचित् ।। ७-६ ।।
* सूत्रार्थ-प्राणिमात्र के विषय में मैत्री, गुणाधिकों के विषय में प्रमोद, दुःखों से पीड़ित के प्रति कारुण्य तथा प्रविनयी जीवों के प्रति माध्यस्थ्य भावना रखनी चाहिए ॥ ७-६ ।।
卐 विवेचनामृत मैत्री तथा प्रमोदादि चार भावनायें सद्गुणों की वृद्धि के लिए अति उपयोगी हैं। इस हेतुकारण हिंसादि व्रतों की स्थिरता के लिए अति आवश्यक होने से इनका पृथक्-भिन्न रूप से वर्णन किया है। वे व्रत के सहायक रूप हैं। अर्थात्-महाव्रतों को स्थिर रखने के लिए समस्त जीवों-प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव, गुणाधिक जीवों के प्रति प्रमोदभाव, दुःखी जीवों-प्राणियों पर करुणाभाव और अविनीत जीवों पर माध्यस्थ्य (उपेक्षा) भाव रखना चाहिए। [१] मैत्री भावना
मैत्री यानी विश्व के समस्त जीवों-प्राणियों पर हार्दिक स्नेह का परिणाम । अर्थात्-किसी भी प्रकार के स्वार्थ बिना और किसी भी प्रकार के भेदभाव बिना विश्व के समस्त जीवों पर प्रीति करनी वह मैत्री कही जाती है।
इसलिए साधक को छोटे-बड़े, उच्च-नीच, स्व-पर, तथा गरीब-श्रीमन्त इत्यादि किसी भी प्रकार के भेदभाव बिना जगत् के समस्त जीवों-प्राणियों पर प्रीति-प्रेमभाव रखना चाहिए। अपने को दुःखी करने वाले जीव-पात्मा पर भी प्रेमभाव रखना चाहिए।
इसलिए कहा है कि-'प्रात्मवत् सर्वभूतेषु०' समस्त प्राणियों के प्रति प्रात्मवत् दृष्टि रखनी चाहिए। ऐसा करने से ही समस्त जीवों-प्राणियों पर मैत्रीभावना आती है।