Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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७।७ ]
सप्तमोऽध्यायः
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आती है, अर्थात् कंटाला आता है, तथा स्वसंसार के विनाश करने की इच्छा होती है । इससे संसार कारणों की तरफ दृष्टि जाती है । संसार के कारणों का विनाश किए बिना संसार का विनाश करना शक्य ही है । संसार के कारण हिंसा आदि हैं। इससे साधक को हिंसा इत्यादि पर भी
रति उत्पन्न होती है ।
इसीलिए संवेग के सम्बन्ध में कहा है कि, संसार और संसार के कारणों पर होती अरति, उसका ही नाम संवेग है । यहाँ संवेग को पुष्ट बनाने के लिए ही संसार के स्वरूप का विचार करने का उपदेश दिया है ।
विश्व-संसार पर अरति होते हुए धर्म और धार्मिक पुरुषों के प्रति अवश्य बहुमान जगता है । धर्म तथा धार्मिक पुरुषों के प्रति जो बहुमान होता है, वह संवेग को जानने के लिए उत्तम चिह्न अर्थात् मापक यन्त्र है ।
धर्म का श्रवण, धार्मिक पुरुषों के दर्शन से होता आनन्द तथा अधिक साधना की इच्छा यही संवेग का लक्षण - चिह्न है ।
वैराग्य की पुष्टि - काया के स्वरूप की विचारणा से वैराग्य की पुष्टि होती है । साधना में किसी भी प्रकार की आसक्ति बाधक होती है। पंचमहाव्रतों के सम्यक् परिपालन करने वाले श्रमण साधक ने संसार के समस्त पदार्थों का त्याग कर दिया है । केवल उनके पास पंचमहाव्रतों की साधना में जरूरी मर्यादित उपकरण होते हैं । उनका देह शरीर भी उपकरण रूप ही होता है । उपकरण यानी संयम की साधना में सहायक वस्तु, शरीर और वस्त्र इत्यादिक चारित्र - संयम की साधना में सहायक बनते होने से श्रमरण - साधु उनका रक्षण करते हैं, किन्तु अनासक्त भाव से । उसमें जो आसक्तिभाव आ जाए तो वे सभी उपकरण बनने के अधिकरण बन जाते हैं । इसलिए साधक को बिन उपयोगी, बिन जरूरी कोई भी चीज वस्तु रखने की नहीं है । तथा आवश्यक जरूरी चीज वस्तु का उपयोग भी प्रासक्ति बिना करने का है । उसमें भी देह शरीर पर आसक्ति नहीं रहे, इसके लिए प्रति ही जाग्रत सावधान रहने की प्रतिश्रावश्यकता है ।
सामान्य से प्रत्येक जीव प्राणी को अन्य वस्तु-पदार्थ की अपेक्षा अपने देह- शरीर पर अधिक आसक्ति होती है । अन्य चीज-पदार्थ पर से प्रासक्ति दूर होने के बाद भी काया पर की श्रासक्ति दूर होनी अति कठिन है ।
इसलिए जो सावधान रहने में नहीं भावे तो काया की आसक्ति अन्य पदार्थों पर भी आसक्ति कराती है । अर्थात् काया पर आसक्ति भाव न हो, और हुआ हो तो दूर हो जाए । इसलिए साधक को संसार के स्वरूप की विचारणा के साथ काया के स्वरूप की विचारणा भी करनी चाहिए । इस काया - देह शरीर की विचारणा से यह देह शरीर देती है । इससे काया - देह शरीर के प्रति आसक्ति नहीं रहती है ।
अशुचिमय तथा अनित्य दिखाई
देह - शरीर के प्रति आसक्तिभाव नहीं होने से केवल काया के पोषरण के लिए जरूरी वस्त्र, पात्र, वसति तथा प्रहार- पानी इत्यादि जिस किसी भी चीज वस्तु का उपयोग करते हैं वह अनासक्त भाव से करते हैं ।