Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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२२ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र
[ ७७ दोषदर्शनादरतिधर्मे बहुमानो धार्मिकेषु च धर्मश्रवणे धार्मिकदर्शने च मनःप्रसाद उत्तरोत्तरगुणप्रतिपत्तौ च श्रद्धेति । वैराग्यं नाम शरीरभोगसंसारनिर्वेदोपशान्तस्य बाह्याभ्यन्तरेषु उपाधिषु अनभिष्वङ्ग इति । संसारस्वरूपं ज्ञात्वा तं पुनः पुनः जन्ममरणादिदुःखाकीर्ण भयसागरोऽयं संसार इति विज्ञाय बिभेति जनः । तञ्च पुनः पुनः विचिन्त्य वैराग्यं प्राप्नोति ।। ७-७ ।।
. * सूत्रार्थ-संवेग और वैराग्य को सिद्ध करने के लिए जगत्-लोक तथा देह-शरीर के स्वरूप का चिन्तन करना चाहिए ।। ७-७ ।।
ॐ विवेचनामृत ॥ संवेग और वैराग्य की पुष्टि के लिए संसार तथा काया का स्वरूप विचारना चाहिए । संवेग अर्थात् संसार का भय-संसार पर कंटाला।* वैराग्य अर्थात् अनासक्ति । संसार के स्वरूप की विचारणा से संवेग की तथा काया के स्वरूप की विचारणा से वैराग्य की पुष्टि होती है। संवेग और वैराग्य ही अहिंसादिक व्रतों की भूमिका है। जैसे-चित्र भूमिका की योग्यता के अनुसार चित्रित किये जाते हैं तथा उसी योग्यता के अनुसार वे अवस्थित भी रहते हैं। इसी भाँति अहिंसादि व्रतों की स्थिरता संवेग और वैराग्य की योग्यता पर निर्भर है।
संसार में भीरुता, प्रारंभ-परिग्रहादिक में अरुचि, धर्म से बहुमान या 'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त सत्' इत्यादि जानना संवेग है। अर्थात्-जगत्-विश्वस्वभाव की भावना संवेग है, तथा देह-शरीर स्वभाव की भावना वैराग्य है। शरीर को विनाशवान समझकर के उनके भोगों से शान्त होकर अभ्यन्तर क्रोधादि विषयों के परित्याग को वैराग्य कहते हैं।
विशेष-पंचमहाव्रतों का पालन एक 'महान् प्राध्यात्मिक साधना' है। यह साधना संसार का विनाश करने के लिए है। इसीलिए संसार का विनाश ही उसका फल है। भव-संसार पर उद्विग्नता कंटाला पाए बिना उसका विनाश-प्रयत्न शक्य नहीं है। इसलिए उसकी साधना में संवेग पहली आवश्यकता है।
जितने अंश में संवेग तीव्र बनता है उतने अंशों में साधना भी प्रबल बनती है। संवेग को तीव्र बनाने के लिए संसार के स्वरूप का विचार करने की आवश्यकता है।
विश्व-संसार के स्वरूप को विचारते हुए विश्व-संसार दुःखस्वरूप, दुःखफलक और दुःखानुबन्धी लगता है। विश्व-संसार के भौतिक सुख के साधन अनित्य, क्षणभङ्गुर और अशरण भासते हैं। विश्व-संसार के सुख भी दुःख रूप दिखाते हैं। इससे विश्व-संसार पर उद्विग्नता
सामान्य से संवेग का अर्थ मोक्षामिलाषा तथा निर्वेद का अर्थ संसारमय विशेष प्रसिद्ध है। ऐसा होते हुए भी इससे विपरीत संवेग का संसारमय तथा निर्वेद का मोक्षामिलाषा अर्थ किसी-किसी ग्रन्थ में दृष्टिगोचर होता है।