Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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७।१४ ] सप्तमोऽध्यायः
[ ३७ जैसे-(१) किसी के पास गाय-भैंस हैं, किन्तु वे दूध नहीं देती हों तो वह वास्तविकपणे गाय-भैंस वाला नहीं कहलाता है। क्योंकि दूध बिना गाय-भैंस की कोई कीमत नहीं होती है।
(२) देह-शरीर के किसी एक भाग में कण्टक-काँटा चुभ जाने से वह देह-शरीर तथा मन को अस्वस्थ करके आत्मा को एकाग्र नहीं होने देता है। इसी माफिक शल्य मन को स्थिर नहीं होने देता। व्रती को शल्य (तीनों) का त्याग करना ही उचित है । * प्रश्न-क्रोधादिक चारों कषाय आत्मा को अस्वस्थ बनाते हैं, तथा आत्मा की प्रगति को
रोकते हैं। इसलिए आत्मा को शल्य रूप ही हैं, तो फिर केवल माया को ही ___ शल्य क्यों कहा जाता है ?
उत्तर-शल्य की जो व्याख्या की है, वह माया में ही सम्पूर्ण रूपे लागू पड़ती है, क्रोधादिक में सम्पूर्णपने लागू नहीं पड़ती है। जो गुप्तपणे विकार पैदा करे वह 'शल्य' है। जैसे-कण्टककाँटादिक शल्य गुप्त रह करके अस्वस्थतादिक विकार करते हैं। माया भी गुप्त रह करके प्रात्मा में विकार करती है। जब आत्मा में द्वेष उत्पन्न होता है तब देह-शरीर की आकृति इत्यादिक से वह प्रकट हो जाता है, किन्तु माया अव्यक्त रहती है। क्रोधादिक भी गुप्त रह सकते हैं, लेकिन उसके लिए यत्न करना पड़ता है। माया तो जब-जब होती है तब-तब यत्न बिना भी गुप्त ही रहती है। इसलिए उनको शल्यरूप नहीं कहते, माया को ही शल्यरूप कहते हैं ।। ७-१३ ।।
* वती-भेदः * 卐 मूलसूत्रम्
अगार्यनगारश्च ॥ ७-१४ ॥
* सुबोधिका टीका * उपर्युक्तः स एष व्रती द्विविधो भवति । अगारी अनगारश्च । अगारं गृहं तदस्ति यस्यासौ अगारी गृहीत्यर्थः ।
न अगारं गृहं यस्य सः गृहविरतो यतिरित्यर्थः श्रावकः प्रश्रमणश्चेत्यर्थः ।। ७-१४ ।।
* सूत्रार्थ-व्रती के दो भेद हैं। [१] अगारी-श्रावक [२] अरणगारसाधु ।। ७-१४ ।।
卐 विवेचनामृत व्रती के अगारी और अनगार इस तरह मुख्य दो भेद हैं। अगार यानी घर-संसार अर्थात् जो घर में-संसार में रह करके (अणु) व्रतों का पालन करता है, वह अगारी व्रती कहा जाता है । तथा जो घर का संसार का त्याग
हा) व्रतों का पालन करता है, वह प्रनगार व्रती कहा जाता है।