Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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सप्तमोऽध्यायः
[ ३५
हो तो वस्तु का स्वोकार परिग्रह रूप नहीं है । वस्तु का स्वीकार नहीं करने पर भी जो उसमें जो इस प्रकार न हो तो इस रीति से भी निष्परिग्रही अर्थात्
आसक्ति हो तो वह परिग्रह है । परिग्रह रहित कहना चाहिए ।
श्रासक्ति बिना यानी इच्छा के बिना वस्तु का स्वीकार सो परिग्रह नहीं है । इच्छा हो तो नहीं मिलने पर भी नहीं भोगने पर भी परिग्रह है ।
तथा आसक्ति
वस्तु छोटी या बड़ी, जड़ या चैतन्य, बाह्य, अभ्यन्तर किसी भी प्रकार की प्रत्यक्ष रूप से हो या न भी हो, किन्तु उसकी ओर आसक्त होकर के विवेक शून्य होना ही परिग्रह है । इच्छा, प्रार्थना, काम, अभिलाषा, परिग्रह तथा मूर्च्छा ये समानार्थक शब्द हैं ।
* प्रश्न - हिंसा से परिग्रह पर्यन्त पाँचों दोषों का स्वरूप बाह्यदृष्टि से भिन्न रूप है, किन्तु वास्तविकपने अभ्यन्तर दृष्टि से विचारपूर्वक गवेषणा की जाए तो किसी प्रकार की विशिष्टता-विशेषता नहीं जान पड़ती। कारण कि उक्त पाँचों व्रतों के दोषों का आधार मात्र राग है, द्वेष है और मोह है । यही विष की बेल है, राग-द्वेष ही दोष है, इतना ही कहना उचित था ? यह नहीं कह करके हिंसादि दोषों की संख्या पाँच या न्यूनाधिकपणे जो कही गई है, उसका क्या कारण है ?
उत्तर - राग और द्वेष ही मुख्य दोष हैं । इससे विराम अथवा विमुख होना ही एक यथार्थ व्रत है। तो भी जब त्यागवृत्ति का सदुपदेश देना हो, उस समय उन राग और द्वेषादिक से होने वाली प्रवृत्तियों को समझाने से ही उनका त्याग हो सकता है । राग-द्वेष से होने वाली प्रवृत्तियाँ अनेक हैं । तथापि उनमें हिंसादिक प्रवृत्तियाँ मुख्यरूप होने से उक्त भेदों का वर्णन किया है । उसमें भी मुख्यपने राग-द्वेष का त्याग ही सूचित किया है ।
हिंसा दोष की व्याख्या में ही शेष असत्यादि दोषों का भी समावेश हो जाता है । इसी माफिक सत्यादि किसी एक दोष की व्याख्या में शेष दोषों का भी समावेश होता है ।
इस तरह अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य तथा सन्तोषादि किसी एक धर्म को ही मानने वाले अपने हुए धर्म में शेष दोषों को घटा सकते हैं ।
माने
विशेष - पंच महाव्रतधारी श्रमरण - साधुओं के पाँच महाव्रतों के पालन के लिए अपनी कक्षा प्रमाणे वस्त्रादिक स्वीकार करने में अंश मात्र भी दोष नहीं है किन्तु नहीं स्वीकार करने में अनेक दोष हैं । जैसे—
(१) पात्र के अभाव में कर हाथ में प्राहारादि भोजन करते समय जो नीचे पड़े तो कीड़ी आदि जीव एकत्र हो जाँय और पाँव आदि से मर जाए ।
(२) बाल, ग्लान, वृद्ध और लाभान्तराय कर्म के उदय वाले श्रमरण - साधु आदि की भक्ति नहीं कर सके। इससे वे संयम-दीक्षा में सिदाय ।
(३) कम्बल - कम्बली आदि नहीं रखने से काल के समय में तथा बरसात के समय में अकाय के जीवों की रक्षा न हो सके ।