Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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३४ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ७।१२ ब्रह्मचर्य के पालन से प्राध्यात्मिक दृष्टि से तो लाभ ही है। विशेष- लौकिक दृष्टि से भी अधिक लाभ है। ब्रह्मचर्य से वीर्यरक्षा, देह-शरीर बल, रोग का अभाव, कान्ति, प्रताप इत्यादि अनेक लाभ प्राप्त होते हैं अर्थात् मिलते हैं ।* ।। ७-११ ॥
* परिग्रहस्य स्वरूपम् * ॐ मूलसूत्रम्
मूर्छा परिग्रहः ॥ ७-१२ ॥
* सुबोधिका टीका * अत्र प्रमत्तयोगशब्दस्य सम्बन्धेन यानि रत्नत्रयसाधनानि सन्ति तेषां ग्रहणे परिग्रहतायाः महत्त्वं नैव भवति ।
चेतनावत् स्वचेतनेषु च बाह्याभ्यन्तरेषु द्रव्येषु मूर्छा परिग्रहः । इच्छा प्रार्थना कामोभिलाषः काङ्क्षा गाद्धयं मूर्छत्यनर्थान्तरम् ।
स्त्री-पुत्र-दास-दासी-ग्राम-गृह-क्षेत्र-धन-धान्यानि बाह्यपरिग्रहाः ।। ७-१२ ।।
* सूत्रार्थ-सचित्त तथा प्रचित्त पदार्थों के प्रति मूर्छा ही परिग्रह है। अर्थात् जड़ अथवा चेतन वस्तु पर मूर्छा-आसक्ति रखनी, उसे परिग्रह कहा जाता है ।। ७-१२ ॥
+ विवेचनामृत मूर्छा ही परिग्रह है। अर्थात् मूर्छा को परिग्रह कहते हैं। मूर्छा का अर्थ प्रासक्ति है। सामान्य से परिग्रह का अर्थ 'स्वीकार' होता है। केवल स्वीकार अर्थ नहीं है, किन्तु जिससे प्रात्मा संसार में जकड़ाता है, वह परिग्रह है, ऐसा अर्थ होता है। प्रात्मा आसक्ति-मूर्छा से संसार में जकड़ाता है। इसलिए आसक्ति परिग्रह है। वस्तु का स्वीकार करने पर भी उसकी आसक्ति नहीं
* यहाँ पर वेद के उदय से होने वाली कामचेष्टा को मैथुन कहा गया है। यह स्थल दृष्टि है। सूक्ष्मदृष्टि
से शब्दादिक किसी भी विषय के सुख की क्रिया मैथुन है। कारण कि प्रात्मा, 'ब्रह्मरिण चरणम् = ब्रह्मचर्यम्'। ब्रह्म में आत्मरमणता करनी सो ब्रह्मचर्य है। इस दृष्टि से राग-द्वेष से पांचों इन्द्रियों के विषयों का सेवन भी अब्रह्म है। इसलिए ही श्रमण-साधुत्रों के पाक्षिक सूत्र में कहा है कि
सद्दा रुवा रसा गंधा, फासाणं पवियारणा।
मेहुणस्त वेरमणे, एस वृत्ते अइक्कमे ॥ राग-द्वेष पूर्वक शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श का सेवन मैथुन विरमण व्रत में दोष रूप है।