Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ७/६
अपने से गुणाधिकको महान् को देखकर या श्रवण करके आनन्द-हर्ष न हो तथा यथायोग्य वन्दनादिक करने का मन न हो तो समझना चाहिए कि अभी अपने में प्रमोद भावना श्राई नहीं है ।
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प्रमोदभावना के अभाव में अन्य-दूसरे के गुणों के दर्शन से अथवा श्रवरण से साधक का चित्त हृदय ईर्ष्या-प्रसूया मात्सर्य रूप अग्नि से जल उठता है । परिणाम में हिंसा तथा असत्य आदि अनेक पाप भी उत्पन्न होने की सम्भावना है । अतः साधक को अपने हृदय को प्रमोदभावना से पूर्ण रखना चाहिए। कारण कि प्रमोदभावना जीव आत्मा में रहे हुए गुरणों को प्रगट कराने के लिए अमोघ उपाय है । साधक में गुण भले कम-न्यून हों तो भी चल सकता है, किन्तु प्रमोद भावना के बिना नहीं चल सकता । प्रमोदभावना के बिना अपने में रहे हुए गुणों की भी कोई कीमत नहीं है ।
[३] करुणाभावना -
करुणा यानी दुःखी जीव को देखकर, उसके प्रति दया का परिणाम । करुणा, दया, अनुकम्पा, कृपा तथा अनुग्रह इत्यादि शब्दों का समान ही अर्थ है । क्लिश्यमान दुःखीजनों पर अनुकम्पा, दया एवं हितबुद्धि रखना, उसको करुणा भावना कहते हैं । दुःखीजनों पर अनुग्रह करने से व्रत उज्ज्वल होता है ।
करुणा के योग्य जीव दो प्रकार के होने से करुणा के भी दो प्रकार हैं । द्रव्यकरुरणा और भाव करुणा ।
रोग इत्यादि बाह्य दु:खों से घिरे हुए जीवों-प्राणियों को देखकर उत्पन्न होती करुणा, सो द्रव्यकरुणा है । तथा अज्ञानता इत्यादि आभ्यन्तर दुःखों से घिरे हुए जीवों-प्राणियों को देखकर उत्पन्न होती करुणा भावकरुरणा है । भाव करुरणा के योग्य जीवों को योग्यता प्रमाणे मोक्षादिक का सदुपदेश देकर के, तथा द्रव्यकरुणा के योग्य जीवों को श्रौषध एवं अन्नपानादि देकर के, उभय प्रकार की करुणा के योग्य जीवों को सदुपदेश तथा औषघादिक दोनों देकर के अपनी शक्ति के अनुसार उन दुखी जीवों पर करुणा करनी चाहिए । अथवा अन्य रीति से भी द्रव्य और भाव दो प्रकार की करुणा है । दुःखी जीव को देखकर उत्पन्न होने वाली दया भावकरुणा है । तथा उसका दुःख दूर करने के लिए योग्य प्रयत्न करना, वह द्रव्यकरुरणा है ।
यहाँ पर साधुनों के लिए तो मुख्यतया भावकरुरणा का विधान है। गृहस्थों को यथायोग्य दोनों प्रकार की करुणा करनी चाहिए । शक्ति और संयोग होते हुए भी केवल भावकरुणा करने वाले गृहस्थ की भावकरुरणा व्यर्थ है ।
[४] माध्यस्थ्य भावना
माध्यस्थ्य, उपेक्षा, समभाव इत्यादि शब्दों का एक अर्थ है । उपदेश ग्रहण के लिए विनीत बने जीव प्राणी के प्रति समभाव अर्थात् राग-द्वेष के त्यागपूर्वक, उसको समझाने के, सुधारने के लिए उपदेश देने का त्याग करना, यह 'माध्यस्थ्य भावना' कही जाती है।