Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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सप्तमोऽध्यायः
परिणाम उसका दुःखरूप होता है। इसी माफिक मैथुन भी राग-द्वेष रूप व्याधि-रोग को बढ़ाने वाला होता है। इन्द्रियलोलुपी देहधारी जीव-प्रात्मा उसे सुखरूप मानते हैं, किन्तु वास्तविकपणे तो वह दुःखरूप ही है ।
विशेष—इस सम्बन्ध में विशेष रूप में कहा जाता है कि-हिंसादिक से केवल अपने को ही दुःख होता है, इतना ही नहीं किन्तु अन्य जीवों को भी दुःख होता ही है। इसे साधक को दीर्घदृष्टि पूर्वक दिल से विचारना चाहिए कि, जैसे मुझे दु:ख प्रिय नहीं है वैसे अन्य-दूसरे जीवों को भी दु:ख प्रिय नहीं है। जैसा मैं हूँ वैसा ही अन्य-दूसरे जीव-प्राणी भी हैं। जैसे मेरा कोई वध करे तो मुझे अति दुःख होता है, वैसे अन्य-दूसरे जीव का वध करने से अर्थात् उसकी हिंसा करने से उसको भी अति दुःख होता है।
कोई व्यक्ति असत्य-झूठ बोलकर मुझे ठगे तो जैसा मुझे दुःख होता है वैसे क्या अन्य-दूसरे को दुःख नहीं होता? इस तरह चोरी आदि से भी अन्य जीवों को दुःख होता है इसलिए इन चोरी आदि पापों का भी त्याग करना हितावह है। मैथुन सेवन करने में प्राप्त सुख भी खुजवलखुजली आदि व्याधि के क्षणिक प्रतिकार तुल्य होने से दुःख ही है।
इस तरह परिग्रह भी तृष्णारूप व्याधिग्रस्त होने से त्याज्य ही है। अर्थात्-अप्राप्त वित्तधन की अभिलाषा-इच्छा का सन्ताप तथा प्राप्त वित्त-धन के भी संरक्षण की चिन्ता, उसके उपभोग में भी अतृप्ति एवं उसके विनाश होते ही शोकादिक का दुःख ही है।
___ इस तरह हिंसादि पाप वर्तमान में भी स्व-पर के दुःख के कारण होने से तथा भविष्य में भी दुःख देने वाले कर्मबन्ध के कारण होने से दुःख रूप ही हैं। इस प्रकार दुःख ही दुःख की भावना करने से व्रती की व्रत में स्थिरता रहती है। चतुर्थ सूत्र 'हिंसादिष्विहामुत्र०' की भावना में 'हिंसादि दःख के कारण हैं। यही विचारणा करने में पाई थी। अब इस पंचम सूत्र 'दुःखमेव वा' की भावना में 'हिंसादि पाप स्वयं दुःखरूप ही हैं। इस तरह विचारणा करने में आई है ।। ७-५॥
* मैत्र्यादि चत्वारभावनाः *
ॐ मूलसूत्रम्मैत्री-प्रमोद-कारुण्य-माध्यस्थ्यानि सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमाना
विनेयेषु ॥ ७-६ ॥
* सुबोधिका टीका * अनादिकर्मबन्धनवशात् सीदन्ति इति सत्त्वाः । सम्यग्ज्ञानादिभिः प्रकृष्टा गुणाधिकाः। प्रसवेद्योदयापादितक्लेशाः क्लिश्यमानाः, तीव्रमोहिनो गुणशून्याः दुष्टपरिणामाः ।