Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ७२४
अर्थात् - 'हिंसादिक पापों से इस लोक में अपाय की ( अनर्थ की ) परम्परा और परलोक में अवद्य का (पाप का करुण विपाक भोगना पड़ता है ।' ऐसी विचारणा करनी चाहिए ।
इस लोक में
पाय
जिस वस्तु पदार्थ का त्याग किया जाय, उसके दोषों का दिग्दर्शन वास्तविकपने जब हो तब वह त्यागवृत्ति अवस्थित रूप से रह सकती है। इसलिए अहिंसादिक व्रतों की स्थिरता के लिए हिंसादि दोषों को जानना समझना अति आवश्यक है । सूत्रकार भी दो प्रकार से व्याख्या करके इसे समझाते हैं ।
(१) एक है ऐहिक दर्शन और ( २ ) दूसरा है पारलौकिक दर्शन । हिंसा असत्यादिक का सेवन करने से इहलोक में जो स्व तथा पर विषयक आपत्ति - विपत्तियाँ अनुभव में प्राती हैं, उसकी तरफ सर्वदा लक्ष्य रखना उसे 'ऐहिक दर्शन' कहते हैं तथा मृत्यु पाकर नरक और तिर्यंच आदि के अनिष्ट दुःखों की प्राप्ति की सम्भावना करनी, उसको 'पारलौकिक दर्शन' कहते हैं ।
सारांश यह है कि यह जीव हिंसादिक दुष्कर्मों के समारम्भ से उभय (स्व, पर) लोक में निन्दित तथा दुःखी होता है । इस तरह की दृष्टि को सदैव सन्मुख रखने वाला अहिंसादिक व्रतों का यथोचित परिपालन कर सकता है । इतना ही नहीं किन्तु वह अपने नियमों पर अर्थात् प्रतिज्ञा पर अटल रह सकता है। व्रतों की स्थिरता के लिए उक्त भावनायें अति उपयोगी
होती हैं ।
प्रथम भावना का विशेष वर्णन नीचे प्रमाणे है
( १ ) हिंसा में निमग्न- प्रवृत्त प्राणी सर्वदा स्वयं उद्विग्न रहता है तथा अन्य-दूसरे को उद्वेग कराता है । इससे अन्य प्राणी के प्रति वैरभाव की परम्परा खड़ी हो जाती है । वध, बन्धन इत्यादि अनेक प्रकार के क्लेश पाता है । इसे शीत-धूप इत्यादि के कष्ट सहन करने पड़ते हैं ।
(२) असत्यवादी अर्थात् झूठ बोलने वाला व्यक्ति अविश्वसनीय और अप्रिय बनता है । वह जिह्वाछेद इत्यादि कष्ट पाता है। जिसके पास असत्य - झूठ बोलता है, उसके साथ वैरभाव - दुश्मनावट होती है । इसे अवसर - समय पर किसी प्रकार की सहायता नहीं मिलती है ।
(३) चोरी करने वाली श्रात्मा अनेक जीवों को दुःखी - उद्विग्न करती है । इतना ही नहीं किन्तु उसे स्वयं भी सदा भयभीत रहना पड़ता है। चोरी से लाई हुई चीज वस्तुओं के रक्षण के लिए अनेक प्रकार के कष्ट - दुःख सहन करने पड़ते हैं । नित्य मन भयभीत होने से भोग-उपभोग भी शान्ति से नहीं कर सकता है । कर्मसंयोगे पुलिस प्रमुख के हाथ से पकड़े जाने पर तो जेल - कैदखाना तथा अपकीर्ति आदि दुःख पाता है ।
( ४ ) ब्रह्म में अर्थात् मैथुन सेवन में कामासक्ति में रत जीव आत्मवीर्य का क्षय, अशक्ति तथा परस्त्री की मित्रता-सोहबत करने से अपकीर्ति पाता है । तथा उसे प्राणों का विनाश आदि अनेक दुःख प्राप्त होते हैं ।