Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
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१. स्त्री-पशु-पंडक संस्तववसतिवर्जन-जहाँ स्त्रियों का गमनागमन (जाना-पाना) विशेष होता हो, जहाँ पशु अधिक प्रमाण में हों तथा जहाँ नपुंसक रहते हों; ऐसे स्थान का और वसतिका का त्याग करना चाहिए। इसे स्त्री-पशु-पंडक संस्तववसतिवर्जन-भावना जाननी ।
२. रागसंयुक्त स्त्रीकथावर्जन- राग से स्त्रियों की कथा नहीं करनी चाहिए। जैसेअमुक देश की स्त्रियाँ अति रूपाली हैं, इत्यादि । अर्थात्-कामवर्धक कथाओं का त्याग करना।
३. मनोहर इन्द्रिय अवलोकन वर्जन-कामोद्दीपक अंगोपांग-अवलोकन का त्याग । अर्थात्-राग से स्त्रियों के अंगोपांगों की तरफ दृष्टि भी नहीं करनी चाहिए। कदाचित्-अकस्मात् दृष्टि पड़ जाए तो भी तत्काल ही पीछे खींच लेनी चाहिए। इसे मनोहर इन्द्रिय अवलोकन वर्जन भावना जानना।
४. पूर्वक्रीड़ास्मरणवर्जन-पूर्वे सेवन किये हुए रति विलासादि भोगों के स्मरण का त्याग । अर्थात्-पहले गृहस्थ अवस्था में की हुई कामक्रीड़ाओं का स्मरण नहीं करना चाहिए । इसे पूर्वक्रीड़ा स्मरणवर्जन भावना जानना।
५. प्रणीत रस भोजन वर्जन--प्रणीत रसवाले आहार का त्याग करना। दूध, दही, घी, मक्खन इत्यादि स्निग्ध और मधुर रसवाला आहार प्रणीत आहार है। उसका त्याग करना चाहिए। इसे प्रणीत रस भोजनवर्जन भावना जानना ।
उक्त पाँचों भावनाएँ चतुर्थ-चौथे महाव्रत (मैथुन विरमण व्रत) की जाननी ।
[५] पंचम-पांचवें महाव्रत की भावनाएं
पाँचों इन्द्रियों को इष्ट, मनोज्ञ वा अभिलषित स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण तथा शब्दादिक वस्तुपदार्थ की प्राप्ति समय राग वा लोलुपता तथा अप्राप्ति समय द्वेषादिक भावना का त्याग करना चाहिए। अर्थात्- स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द इन पाँचों विषयों में मनोज्ञ (इष्ट) होने पर राग नहीं करना चाहिए तथा अमनोज्ञ (अनिष्ट) हों तो द्वेष नहीं करना चाहिए। स्पर्श आदि प्रत्येक की एक-एक भावना होने से पाँच विषयों की पाँच भावनायें हैं ।
विशेष-त्यागधर्म के विषय में श्रीजैनसंघ के महाव्रतधारी श्रमरण-साधुओं का स्थान सबसे प्रथम-पहला और उच्च कोटि का है। इसी उद्देश्य को आगे रखकर इन प्रस्तुत भावनाओं का वर्णन किया गया है। तथापि व्रतधारी अपनी मर्यादा के अनुसार अथवा देशकाल, परिस्थिति या आन्तरिक योग्यता की तरफ ध्यान रखता हुआ सिर्फ व्रत की स्थिरता या व्रत की शुद्धि के लिए इन भावनाओं का संकोच-विकास अथवा इनको न्यूनाधिक रूप में नव पल्लवित कर सकता है ।
यहाँ पाँचों महाव्रतों की पच्चीस भावनाएँ बताने में आई हैं। उनका यथार्थ पालन करने से पंच महाव्रतों का पालन शुद्ध निरतिचारपने होता है अन्यथा अतिचार लगने से महाव्रत भंग होते हैं और उनको धारण करने वाले दोषों के भागी बनते हैं । (७-३)