Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
View full book text
________________
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ७३ हुए अथवा आगन्तुक जीवों की रक्षा के लिए प्रत्येक घर से पात्र में लिया हुआ पाहार उपयोगपूर्वक जोहना, उपाश्रय में आने के बाद पुनः प्रकाशवाले स्थान में वह आहार जोहना-देखना। बाद में प्रकाशवाले स्थान में जयणापूर्वक बैठकर भोजन करना । [२] द्वितीय-दूसरे महावत की भावनाएँ
(१) अनुवीचिभाषण, (२) क्रोधप्रत्याख्यान, (३) लोभप्रत्याख्यान, (४) भयप्रत्याख्यान, तथा (५) हास्यप्रत्याख्यान ।
ये पाँच भावनाएँ द्वितीय-दूसरे महाव्रत-सत्यव्रत की हैं। विशेष वर्णन क्रमशः नीचे प्रमाणे है
(१) अनुवीचि भाषण-अनुवीचि = यानी विचार। अनिंद्य भाषण। अर्थात् विचार पूर्वक बोलना वह अनुवीचि भाषण कहा जाता है ।
(२) क्रोधप्रत्याख्यान-क्रोध का त्याग करना, वह क्रोधप्रत्याख्यान कहलाता है। (३) लोभप्रत्याख्यान-लोभ का त्याग करना, वह लोभप्रत्याख्यान कहा जाता है । (४) भयप्रत्याख्यान-भय का त्याग करना, वह भयप्रत्याख्यान कहलाता है ।* (५) हास्यप्रत्याख्यान-हास्य का त्याग करना, वह हास्य प्रत्याख्यान कहा जाता है ।
विचार किए बिना बोलना इत्यादि पाँच प्रसत्य के कारण हैं, इसलिए इन पाँचों का त्याग करना चाहिए। [३] तृतीय-तीसरे महाव्रत की भावनाएँ
तीसरे महाव्रत की पाँच भावनाएँ इस प्रकार हैं- १. अनुवीचि-अवग्रह याचना, २. अभीक्षण अवग्रह याचना, ३. अवग्रह अवधारण याचना, ४. समानधर्मी-धार्मिक अवग्रह याचना, एवं ५. अनुज्ञापित पान भोजन याचना ।
इन पाँचों भावनाओं का क्रमशः वर्णन इस प्रकार है
(१) अनुवीचि अवग्रह याचना-अनुवीचि अर्थात् विचार । अवग्रह अर्थात् रहने के लिए स्थान-जगह। याचना अर्थात् मांगना । श्रमरण-साधुओं को जिस स्थान-जगह में वास करना हो, उस स्थान का जो मालिक हो. उसको कितने स्थान की जरूरत है इत्यादि विचार पूर्वक अनुमतिआज्ञा लेकर ही उस स्थान-जगह में वास करना चाहिए। अन्यथा अदत्तादान का दोष लगता है। इन्द्र, चक्रवर्ती, मांडलिक राजा, गृहस्वामी और सार्मिक पूर्वे-पहले वहाँ रह रहे श्रमण-साधु इस तरह पाँच प्रकार के स्वामी हैं।
भय सात प्रकार के हैं। (१) इहलोक (मनुष्य से) भय, (२) परलोक (तिर्यंच से) मय, (३) प्रादान (कोई ले जायेगा ऐसा) मय, (४) अकस्मात् (बिजली आदि का) भय, (५) प्राजीविका (जीवन निर्वाह का) मय, (६) मृत्यु-मरण भय, तथा (७) अपकीत्ति भय। इन सात प्रकार के भयों का त्याग करना।