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26 :: तत्त्वार्थसार
स प्राणि-संरक्षण- सावधानो बभार योगी किल गृद्धपिच्छान् । तदा प्रभृत्येव बुधायमाहुराचार्यशब्दोत्तर गृद्धपिच्छम्।।12।।
—उनके वंशरूप प्रसिद्ध खान से अनेक मुनिरूप रत्नों की माला प्रकट हुई। उसी मुनिरूपी रत्नमाला के बीच में मणि के समान श्री कुन्दकुन्द नाम से प्रसिद्ध ओजस्वी आचार्य हुए। उन्हीं कुन्दकुन्द स्वामी के पवित्र वंश में समस्त पदार्थों के ज्ञाता श्री उमास्वाति मुनि हुए, जिन्होंने जिनागम को सूत्र रूप में निबद्ध किया । यह उमास्वाति मुनिराज प्राणियों की रक्षा में अत्यन्त सावधान थे, इसलिए उन्होंने मयूरपिच्छ के गिर जाने पर गृध्रपिच्छी को धारण किया था। उसी समय से विद्वान लोग उन्हें गृध्रपिच्छाचार्य कहने लगे ।
मैसूर प्रान्त के अन्तर्गत नागर प्रान्त के छयालीसवें शिलालेख में लिखा है
तत्त्वार्थसूत्रकर्तारमुमास्वातिमुनीश्वरम् । श्रुतकेवलिदेशीयं वन्देऽहं गुणमन्दिरम् ।।
- मैं तत्त्वार्थसूत्र के कर्त्ता, गुणों के मन्दिर एवं श्रुतकेवली तुल्य उमास्वाति आचार्य को नमस्कार करता हूँ । यही उमास्वाति आचार्य, उमास्वामी और गृध्रपिच्छाचार्य नाम से भी विख्यात हैं । धवलाटीका में श्री वीरसेनाचार्य ने काल द्रव्य का वर्णन करते समय " तह गिद्धपिच्छाइरियप्पयासिद तच्चत्थसुत्तेवि" इन शब्दों के द्वारा तत्त्वार्थसूत्र के कर्त्ता को गृध्रपिच्छाचार्य लिखा है। सन् 941 में निर्मित कर्णाटक आदिपुराण में महाकवि पम्प ने उमास्वामी को आर्यनुत गृध्रपिच्छाचार्य लिखा है। इसी तरह सन् 978 में रचित कर्णाटक 'त्रिषष्टि लक्षण' पुराण में उसके कर्त्ता चामुण्डराय ने भी उमास्वामी को गृध्रपिच्छाचार्य लिखा है / S
सन् 1250 के लगभग रचित कर्णाटक भाषा के 'पार्श्वपुराण' में उसके रचयिता पार्श्व पण्डित ने तत्त्वार्थसूत्र के कर्त्ता का उमास्वाति नाम से स्तवन किया है 16
सन् 1320 के लगभग विरचित कर्णाटक भाषा के 'समय परीक्षा' ग्रन्थ में उसके कर्त्ता ब्रह्मदेव कवि ने उमास्वामी का 'गृध्रपिच्छाचार्य' के नाम से उल्लेख किया है। 7
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तत्त्वार्थसूत्रकर्त्तारं गृध्रपिच्छोपलक्षितम् ।
वन्दे गणीन्द्रसंजातमुमास्वामि- मुनीश्वरम् ।।
इस प्रसिद्ध श्लोक में भी तत्त्वार्थसूत्र के कर्त्ता को गृद्धपिच्छ से उपलक्षित उमास्वामी नाम से प्रकट किया है। इन उपरितन उल्लेखों से तत्त्वार्थसूत्र के रचयिता उमास्वामी, उमास्वाति और गृध्रपिच्छाचार्य ये तीन नाम हमारे सामने आते हैं। यह बहुत ही प्रसिद्ध तथा जिनागम के पारगामी विद्वान थे। तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकार समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंक तथा विद्यानन्दि आदि आचार्यों ने बड़े श्रद्धापूर्वक शब्दों में इनका उल्लेख किया है। पूज्यपाद स्वामी ने जो सर्वार्थसिद्धि टीका लिखी वह बहुत अर्थपूर्ण एवं मार्मिक कथन से ओतप्रोत है। इसके प्रारम्भ में जो जिज्ञासा रूप उत्थानिका है वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है
85. वसुमतिगे नेगले तत्त्वार्थसूत्रमं वरेद गृध्रपिच्छाचार्यवर
जसदिं दिगन्तमं मुद्रिसि जिनशासनद महिमेयं प्रकटि सिदर | 13 || 86. अनुपम तत्त्वार्थ पुण्य निबन्धनं मप्पुदें तु पनदोल्ने
दृने वेलसियंते वेलसिके निशमुमास्वाति पादयति पादयुगम् ।। 87. जगदोल गुल्ल सुतत्त्वम न गणित मननन्त भेद भिन्न स्थितियम् । सुगमदि नरि वन्निरे येल्द गुणाढ्यं गृध्रपिच्छ मुनि केवलिने ।
88. तत्त्वा सा., प्रस्ता.
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