________________
प्रस्तावना :: 25
कुन्दकुन्दाचार्य ने इन तत्त्व, द्रव्य, पदार्थों की व्याख्या मुख्य और गौण-रूप से की है और उसे आध्यात्मिकता का पुट देकर सरल बनाया गया है। इनका समय-समय पर टीकाकरण होकर प्रचार-प्रसार बढ़ता गया।
कुन्दकुन्दाचार्य के बाद उमास्वामी, जिनका दूसरा नाम गृद्धपिच्छाचार्य है, ने सात तत्त्वों का वर्णन सर्वप्रथम संस्कृत की सूत्र शैली में तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ की रचना कर किया, जिसे मोक्षशास्त्र भी कहा जाता है। उत्तरवर्ती ग्रन्थकारों ने अपने-अपने ग्रन्थों में तत्त्वार्थसूत्र के नाम से ही इसका उल्लेख किया है। इसके ऊपर आचार्यों ने वृत्ति, वार्तिक, भाष्य, टिप्पण आदि अनेक टीकाएँ लिखीं। इनमें गन्धहस्तिमहाभाष्य टीका की पुष्टि अनेक आचार्यों ने की है। उन समन्तभद्राचार्य का वैयक्तिक, साहित्यिक, आगमिक एवं दार्शनिक परिचय आज के अनेक विद्वानों द्वारा शोधपूर्णरीति से संकलित है।
उमास्वामी एवं तत्त्वार्थसूत्र समय-समय पर अनेक घटनाओं ने महापुरुषों में भेद उत्पन्न किये। अर्हबली आचार्य के समय काल दोष से मुनियों में अपने-अपने संघ का पक्षपात पैदा हुआ। उसे देखकर अर्हद्बली आचार्य ने मुनियों के नन्दिसंघ, सेनसंघ, सिंहसंघ और देवसंघ इस प्रकार चार संघ स्थापित कर दिये। उनमें भगवान महावीर के निर्वाण से लेकर 683 वर्ष व्यतीत होने के बाद दश वर्ष तक आचार्य गुप्तिगुप्त संघाधिपति रहे। उनके बाद चार वर्ष तक माघनन्दी, तत्पश्चात् नौ वर्ष तक जिनचन्द्र, तदुपरान्त बावन वर्ष तक कुन्दकुन्द स्वामी और तत्पश्चात् चालीस वर्ष आठ दिन तक उमास्वामी आचार्य नन्दि संघ के पीठाधिपति रहे।
श्रवणवेलगोल के 65वें शिलालेख में लिखा है
तस्यान्वये भूविदिते बभूव यः पद्मनन्दि प्रथमाभिधानः । श्री कुन्दकुन्दादि मुनीश्वराख्यः सत्संयमाददगतचारणद्धिः।। 5॥ अभूदमास्वाति मुनीश्वरोऽसावाचार्यशब्दोत्तर गदधपिच्छः।।
तदन्वये तत्सदृशोऽस्ति नान्यस्तात्कालिकाशेषपदार्थवेदी।।6।। -उन जिनचन्द्र स्वामी के जगत् प्रसिद्ध अन्वय में 'पद्मनन्दी प्रथम' इस नाम को धारण करनेवाले श्री कुन्दकुन्द स्वामी नाम के आचार्य हुए, जिन्हें सत्संयम के प्रभाव से चारण ऋद्धि प्राप्त थी। उन्हीं कुन्दकुन्दाचार्य के अन्वय में उमास्वाति आचार्य हुए जो गृद्धपिच्छ आचार्य के नाम से प्रसिद्ध थे। उस समय गृद्धपिच्छाचार्य के समान समस्त पदार्थ को जानने वाला कोई दसरा विद्वान नहीं था। श्रवणबेलगोल के निम्न श्लोक (258 वें शिलालेख) में लिखा है
तदीयवंशाकरतः प्रसिद्धादभूददोषा यति-रत्नमाला। बभौ यदन्तर्मणिवन्मुनीन्द्रः स कुन्दकुन्दोदितचण्डदण्डः।10। अभूदुमास्वाति मुनिः पवित्रे वंशे तदीये सकलार्थवेदी। सूत्रीकृतं येन जिनप्रणीतं शास्त्रार्थजातं मुनिपुङ्गवानः।।11।।
84. तत्त्वा
सा., प्र.
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org