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प्रथमtsfaकार:
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सत्य है कि समस्त प्राणियों के हितकर जिनेन्द्र भगवान् के आगमन होने पर परम आनन्द को देने वाला क्या आश्चर्य नहीं होता है अर्थात् सभी आश्चर्य होते हैं ॥ ७७ ॥
इस प्रकार जिनराज के प्रभाव को देखकर सन्तुष्ट वनपाल ने फलादि लाकर ।। ७८ ।
शीघ्र ही उस नगर में आकर उन श्रेणिक प्रभु को नमस्कार किया और भेंट करता होला ।। ७९ ॥
हे राजन् ! आपके पुण्य से केवलज्ञानरूपी सूर्य महावीर स्वामी श्री विपुलाचल पर आए हैं ॥ ८२ ॥
उस बात को सुनकर परम आनन्द से भरे हुए राजा ने उसे महादान देकर और उस दिशा में उठकर ॥ ८१ ॥
शीघ्र ही सात कदम चल कर परोक्ष में बन्दना कर । हे वीर, गम्भीर बर्द्धमान जिनेश्वर तुम्हारी जय हो, ऐसा कहा ।। ८२ ।।
प्रमोदपूर्वक आनन्ददायिनो भेरी बजवाकर हाथी, घोड़े, पदाति लोगों के साथ || ८३ ||
रथसमूह और
अपने योग्य यान पर चढ़कर छत्रादिक विभूतियों के साथ श्री महावीर की वन्दना करने के लिए श्रेणिक प्रसन्नतापूर्वक चला || ८४ ||
तथा उस भेरी को सुनकर समस्त भव्य जन पूजा द्रव्य की लेकर स्त्री सहित शीघ्र निकले ॥ ८५ ॥
जो जिन भक्ति परायण धार्मिक भव्य होते हैं, वे धर्मकार्यों में परम आदर से युक्त हो जाते हैं ।। ८६ ।।
इस प्रकार भव्य लोगों को आगे किए हुए भैरी तथा मृदङ्ग के गम्भीर नाद गर्जित दिशाओं रूप तट वाले होता उस श्रेणिक राजा ने || ८७ ॥
देवेन्द्र अथवा असुरों के साथ उन्नत विपुलाचल पर चढ़कर विभु के समवशरणादि को अत्यधिक रूप से देखा ॥ ८८ ॥
उसे देखकर श्रेणिक चित्त में सन्तुष्ट हुआ। जैसे कैलाश पर्वत पर वृषभनाथ के समवशरण को देखकर भरतेश्वर सन्तुष्ट हुआ था ।। ८९ ।।