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पचमोऽधिकारः
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भरे हुए स्वच्छ जलाशय तब सुशोभित होने लगे । लोगों के ताप को नष्ट करने वाले वे सज्जनों के मन के समान थे ॥ ५३ ॥
क्रूर सिंहादिक भी दयापरायण हो गए। साधुओं के अच्छे प्रभाव से कौन सा शुभ नहीं होता है || १४ ||
उनके प्रभाव को देखकर वनपाल अत्यधिक फलादिक लाकर, आगे रखकर राजा से बोला ||
हर्षित हो गया। वह
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हे राजन् ! संसार को आनन्दित करने वाले भूतल को पवित्र करने वाले मुनि बहुत बड़े संघ के साथ वन में आये हैं ॥ १६ ॥
उस बात को सुनकर प्रभु ने उसे दान देकर वेगपूर्वक भव्यों को सुख देने वाली मेरी बजवाकर, वृषभदास आदि समस्त नगरवासियों के साथ वन जाकर मुनि के दर्शन कर, प्रमोदपूर्वक तीन प्रदक्षिणा देकर, सुखप्रद मुनि के चरणकमलों की पूजा कर हाथ जोड़कर नमस्कार किया ।। १७-१८-१८५
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दयारस के समुद्र स्वामी समाधिगुप्त नामक मुनि ने भव्यों को अनुक्रम से धर्मवृद्धि दी। वे राजा आदि हर्षित हुए || २० |
अनन्तर उनके द्वारा अत्यधिक विनयपूर्वक पूछे जाने पर मुनिश्रेष्ठ ने धर्म कहा । हे भव्यों ! जिनवाणी को सुनो ॥ २१ ॥
परम उदय वाले सुखकर धर्म को नित्य करो। जिससे पुत्र मिश्रादि से युक्त सम्पदायें प्राप्त होती हैं ॥ २२ ॥
धर्म से भव्य जीव को क्रम से सुराज्य नित्य मान्यता, शौर्य, औदार्य आदि गुण, विद्या, यश, प्रमोद और धन-धान्यादिक की प्राप्ति होती है । मुनि और श्रावक के भेद से वह धर्म दो प्रकार का होता है ।। २३-२४।।
मुनियों के वह महाधर्म स्वर्ग और अपवर्ग को देने वाला, समस्त पञ्च पापों के त्याग रूप तथा रत्नत्रयात्मक होता है ॥ २५ ॥
उनमें से आदि में दोष रहित श्रावकों का धर्म अणुव्रत रूप माना गया. है । केवलज्ञानी अर्हन्तदेव तथा गुरु निर्ग्रन्थ स्मरण किए गए हैं ॥ २६ ॥