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नवमोऽधिकारः
सम्यक्त्व और पत से संयुक्त उत्तम क्षमा और मानसिक ध्यान से मन रूपी बन्दर को रोककर दया रूपी संपत्ति से युक्त, प्रमाद से रहित लोगों द्वारा कर्मों का नित्य संवर किया जाता है । जिस प्रकार जहाज के रक्षक महासमुद्र में जल का निरोध करते हैं ॥ ४१-४२ ।।
इति संवरानुप्रेक्षा निर्जरा दो प्रकार की होती है--(१) सविपाक और (२) अविपाक । योगियों के कर्मों की एकदेश हानि होती है ॥ ४३ ॥
कों के उदय होने पर प्राणियों को दूःखादिक देकर क्रमशः हानि होना, विद्वानों ने सब जगह सविपाका निर्जरा मानी है ।। ४४ ॥
जिनेन्द्र द्वारा कथित तप से बुद्धिमानों द्वारा जो कम की हानि की जाती है, वह परमोदया अविपाका निर्जरा जाननी चाहिए ॥ ४५ ।।
इति निर्जरानुप्रेक्षा जहा पर सादा जीनाटिकामा सेनाले हैं, ऊो जानारे झाले जिनेन्द्र मत के जानने वालों के द्वारा, वह लोक कहा जाता है ।। ४६ ।।
वह लोक निश्चित रूप से किसी रुद्रादि के द्वारा नहीं बनाया गया है। उसका तीन काल में कोई हां नहीं माना गया है ॥४७॥
अनन्त आकाश के मध्य में वह अनादि निधन है। वह अधो, मध्य और ऊर्ध्व के भेद से तीन प्रकार का कहा गया है ।। ४८ ।।।
वह चौदह राजू ऊँचा सुशोभित है । उसका घनफल तीन सौ तेतालीस घन राजू प्रमाण है ।। ४९ ॥
जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा उस लोक का विस्तार पूर्व-पश्चिम में क्रमशः नीचे सात राजू, मध्य में एक राजू तथा ब्रह्म स्वर्ग के अन्त में पाँच राजू और लोकान्त में एक राजू प्रमाण है ।। ५० ॥
दक्षिण और उत्तर से चारों ओर से वह सात राज है। जिस प्रकार वृक्ष छाल से वेष्टित है, उसी प्रकार लोक नित्य तीन वायुओं से वेष्टित है।। ५१॥
रत्नप्रभा के अग्रभाग जिसका कि नाम खरादिबहल है, वह सोलह हजार योग्य मोटाई वाला कहा गया है ।। ५२ ।।
द्वितीय पङ्कादिबहल भाग में मोटाई का प्रमाण चौरासी हजार योजन कहा गया है ।। ५३ ।।
उन दोनों भागों में नित्य भवनवासी देवों के द्वारा पूजित सात करोड़ बहत्तर लाख अनुत्तर श्री जिनेन्द्र भगवान् के प्रासाद हैं, जो कि प्रतिमाओं से सुशोभित हैं। ये ध्वजाओं से युक्त, शाश्वत और परम आनन्द देने याले है ।। ५४.५५ ॥