Book Title: Sudarshan Charitram
Author(s): Vidyanandi, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 191
________________ दशमोऽधिकारः अनन्तर विशुद्धात्मा सेठ शल्यरहित मन बाला होकर सुकान्त नामक पुत्र के लिए समस्त श्रेष्ठि का पद आदि देकर, भक्ति से उत्तम बुद्धि वाले उन विमलवान गुरु को नमस्कार कर बोला कि हे करुणासिन्धु, मुझे जिनेन्द्र भगवान् द्वारा कथित दीक्षा दोजिए || १-२ ॥ श्रीमान् की चरण कृपा से में अपना हित करता हूँ। मुनोन्द्र सम्यग्ज्ञानी वे भी उसके निश्चय को दृढ़ मानकर, मुनियों की सार रूप आचार विधिको मुक्तिपूर्वक कहकर योग्य अभीष्ट वचन बोले ।। ३-४ ॥ भी स्थिर यथा तब भव्य सुदर्शन ने उनके परमानन्ददायक आदेश रूपी रसायन को पाकर और उन्हें प्रणाम कर, मन, वचन और काय की शुद्धिपूर्वक बाह्य और आभ्यन्तर आसक्ति को त्याग कर, लोच कर, व्रत से युक्त जिनेन्द्र दीक्षा ग्रहण कर ली ।। ५-६ ॥ सच है, सज्जन लोग सुदर्शन की तरह शुभ अवसर पाकर अपनी आत्मा का अत्यधिक रूप से कल्याण करते हैं ॥ ७ ॥ तब उस सबको देखकर धात्रीवाहन राजा ने पुनः अपनी स्त्री के समस्त कष्ट कर्मों की निन्दा कर, अपने मन में भयभीत होकर विचार किया । अहो ! यह सुदर्शन जिनभक्ति पराया है ॥ ८-९ ॥ छोटा होने पर भी करुणानिधि, शोलसागर (यह ) बुद्धिमान् इस समय सब कुछ त्याग कर मुनीश्वर हो गया || १० ॥ वाले अत्यन्त मूढ़ बुद्धि वाला नारी में आसक्त, विषयासक्त में धतूरा खाने मनुष्य के समान किंचित् अपना हित नहीं जानता हूँ ।। ११ ।। इस समय भी मैं निश्चित से अपना कार्य करता है । संसाररूपी भोषण वन में दुःखी में कैसे रहूँगा ? ।। १२ ।।

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