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दशमोऽधिकारः सुधी (वह) सदा प्रमाद को छोड़कर सर्वदा दोषों का क्षय करने वाले प्रतिक्रमण को अत्यधिक रूप से करता था ॥ ९९ ॥
परिक्रमा के बाद वह विचक्षण नित्य देव, गुरु आदि की साक्षीपूर्वक सुख की खान प्रत्याख्यान को करता था ।। १०० ॥
अन्य जिस किसी वस्तु का जो अपनी शक्तिपूर्वक परित्याग धीर व्यक्तियों के द्वारा किया जाता है, उसे प्रत्याख्यान कहते हैं ॥ १०१ ।।
बुद्धिमान स्वामी काय से अत्यन्त निस्पृह होकर कर्मों को हानि के लिए अपनी शक्ति के अनुसार सदा कायोत्सर्ग करते थे ॥१०२॥
योगिराट मनियों को सुख का समह प्रदान करने वाले छः आवश्यक अयमा शिव की गति के लिए नादार (भावश्यक का साधन करते थे ॥१०३||
( रेशमी, कपास के बमे, रोम के बने, चमड़े के बने तथा पेड़ को छाल से निर्मित पाँच प्रकार के वस्त्रों के नित्य त्यागी थे ।। १०४|| ).
जिनेन्द्र का नग्न रूप उत्कृष्ट निर्वाण का साधन है। ब्रह्मचर्य का (उससे) रक्षण मानकर उन्होंने नग्नत्व का आश्रय लिया था ॥१०५।।
दयालु वे राग की हानि के लिए स्नान नहीं करते थे। उन्होंने धैर्य के कारण पृथ्वी पर सोने का अत्यधिक रूप से सेवन किया था अर्थात् वे पृथ्वी पर शयन करते थे ।।१०६।। __मुनि मार्ग के तत्त्व को जानने वाले वे महामुनि प्रत्याख्यान की उत्कृष्ट रूप से रक्षा करने के लिए दन्तधावन नहीं करते थे ।।१०७।।
भोजन पान की प्रवृत्ति की मर्यादा के प्रतिपालक वे महामुनि उन्नत होकर यथायोग्य एक बार अपनी युक्ति से, सन्तोष भाव का आश्रय लेकर श्रावकों के घर अपने तप की सिद्धि के लिए आहार किया करते थे ॥१०८-१०९||
कृत, कारित से रहित, पवित्र, दोष रहित दोनों पैरों के बीच चार अंगुल का अन्तर कर, वे मुनि सूर्योदय तथा सार्यकाल को छह घड़ी छोड़कर मध्य के समय शुभ आहार को लेते थे ।।११०-१११।।
धर्मध्यान में लगे हुए वे मोक्षसाधक मुनियों के इन शुद्ध २८ मूलगुणों को धारण करते थे ।।११।।
उत्तम क्षमा प्रमुख श्रीमजिजनेन्द्र कथित दश प्रकार के धर्मों को वे प्रीतिपूर्वक पालते थे ।।११३॥