Book Title: Sudarshan Charitram
Author(s): Vidyanandi, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 217
________________ एकादशोऽधिकारः १९७ जो भव्य संसार में स्त्रीसंग से पराङ्मुख हैं. वे धन्य हैं। उन्होंने शील व्रत का पालन कर परमोदय को प्राप्त किया है ।। २९ ॥ मेरे द्वारा भी जिनेन्द्रोक्त तत्त्व के प्रति चित्त लगाकर सर्वथा शील के रक्षण से उत्कृष्ट मोक्ष साध्य है ।। ३० ।। इस प्रकार वे धीर मुनि अपने चित्त में अत्यधिक रूप से सोच रहे थे तभी उस पापिनी ने मुनिश्रेष्ठ को उठाकर, अपनी शय्या पर रख लिया । काष्ठ के समान बने हुए उन मुनि ने मौन में स्थित रह निश्चल होकर विचार किया, मेरे लिए यहाँ परमेष्ठी, पितामह सर्वथा शरण हैं, मैं शुद्ध, बुद्ध एक हूँ, पृथ्वी पर अन्य कोई ( मेरा ) नहीं है ॥ ३१-३३ ।। तब उस पापिनी के घने गाढ़ आलिङ्गनों से, मुख में मुख अर्पित करने से, हाथ छूने से और रागपूर्वक बातचीत करने से, नग्न होकर अपने आकार दिखलाने और मर्दन से, इस प्रकार तीन दिन तक पीड़ित होने पर भी स्वामी उसी प्रकार स्थित रहे ।। ३४-३५ ।। तब दुष्टा निरर्था देवदत्ता उन्हें अत्यधिकः निश्चल मानकर मुनि को उठाकर शीघ्र श्मशान जाकर, वहाँ श्मशान में मुनि को रखकर काला मख धारण करके, वह पापिनी अपने घर चली गई। मद में उन्मत्त दुष्ट स्त्रियाँ क्या पाप नहीं करती हैं ।। ३६-३७ ।। __ तत्त्व चिन्तन में तत्पर, दक्ष, धीर बुद्धि वाले स्वामी जब तक श्मशान में ठहरे, तब तक वह भय से व्याकुल पापिनी व्यन्तरी आकाश मार्ग में भ्रमण करती हुई विमान के लड़खड़ाने से उन मुनि को देखकर, बोली, रे मैं तुम्हारे दुःख से मरकर देवता हुई हूँ। हे सुदर्शन ! तुम किसी देव से रक्षित हो ।। ३८-४० ॥ . हे शठ ! इस समय तुम्हारा कौन रक्षक है, बोलो। इस महाकोप से बोलकर दारुण उपसर्ग करने लगी॥४१॥ तब मुनि के पुण्य के प्रभाव से वह सुधी भक्त यक्ष भी आकर उस देवी को रोकने लगा ॥ ४२ ॥

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