Book Title: Sudarshan Charitram
Author(s): Vidyanandi, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 223
________________ एकादशोऽधिकारः २०३ फिर भी हे देव ! आपकी स्तुति भथ्यों को सुख देने वाली है । यह हमारे संसार रूपी समुद्र को पार करने वाली हो ॥ ७४ ॥१ दस्तक से पर समस्त इन्द्रानि के राजा पुनः पुनः नमस्कार कर, धर्म के सुनने में मन लगाकर अपने दोनों हाथ मुकुलित कर हे स्वामी ! आपके मुख कमल में दृष्टि लगाकर सुखपूर्वक स्थित हैं ।। ७५-७६ ।। तब कृपासिन्धु स्वामी अपनी दिव्य भाषा से परम आनन्द बिखेरते हुए अपनी दिव्य भाषा में भव्यों से बोले || ७७ || यति का आचार संसार में सारस्वरूप है, मुनियों के सुख का कारण है, मूल और उत्तर गुणों से पवित्र और रत्नत्रय से मनोहर है || ७८ || सार सम्यक्त्व से संयुक्त उपवास सहित दान, पूजा, व्रत, शील संसार के हितकारी हैं। श्रावकों के लिए सुखप्रद हैं ॥ ७९ ॥ नित्य परोपकार धर्मियों के उत्तम मन को प्रिय है । गुणों के अधीश ने समस्त प्राणियों के हितकर धर्म कहा || ८० ॥ स्वामी ने सात तत्त्व अत्यधिक विस्तार से कहे । छः द्रव्य सब जगह लोक की स्थिति रूप संग्रह ॥ ८१ ॥ r पुण्यपाप का फल समस्त कर्म प्रकृतियों का समूह, जो कुछ भो जिनभाषित तत्त्व सद्भाव है ॥ ८२ ॥ इन सबको सुनकर भव्य समूह परम आनन्द से भर गए। जय शब्द के कोलाहल से उन्हें, उन्होंने भक्तिपूर्वक नमस्कार किया || ८३ ॥ तब उनकी केवलज्ञान रूपी सम्पदा को देखकर उस व्यन्तरी ने नमस्कार कर साररूप सम्यक्त्व ग्रहण कर लिया ॥ ८४ ॥ सच है, पृथ्वी पर जो पापी भी हैं, साधु के अत्यधिक श्रद्धा हो जाती है । जैसे रस के संयोग से जाता है ।। ८५ ।। संगम से उनकी भी लोहा भी सोना हो केवलज्ञान से उत्पन्न उस प्रकार के अतिशय को सुनकर सज्जनों से घिरे हुए पुत्र सुकान्त सहित मनोरमा ने आकर उन जिनेश्वर को देखकर धर्मानुराग से नमस्कार कर सुभक्तिपूर्वक अर्चना कर, संसार, शरीर और भोगों से विशेष रूप से विरक्त हो गए । प्रिय उक्तियों से सबसे क्षमा कराकर सुकान्त, पुत्र से पूछकर, मन, वचन, कात्र से सब त्याग कर, वस्त्र

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