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दशमोऽषिका
१८३ क्वचित् मलादिक को किसी प्रासुक स्थान पर त्याग करते हुए सुधी युक्तिपूर्वक प्रतिष्ठापन समिति का आश्रय लेते थे ।। ८५ ॥
दयारूपी वृक्ष के लिए मेघ के समान इस प्रकार जिन कथित पाँच समितियों को बोगीन्द्र सावधान होकर पालते थे ।। ८६ ।।
सुधी पवित्रात्मा वे स्निग्ध और कोमल आठ प्रकार के स्पर्श का परित्याग कर इंद्रियविजय के लिए उद्यत रहते थे ।। ८७ ।।
स्वेच्छापूर्वक आहारादि छोड़ने से मन, वचन, काय से शुर स्वामी जिह्वेन्द्रिय को भयरहित होकर जीतते थे ।। ८८ ||
जो इंद्रियों को जीतता है, वहीं शूर है, युद्ध में मरने वाला शूर नहीं है। इन्द्रियों को जोतने वाला शूर मोक्षार्थी होता है। रण में शुर तो खलंपट ( ? ) है ।। ८९ ॥
चन्दन, अगुरु, कपूर और सुगन्धित द्रव्य के संचय की इच्छा का भी स्वामी त्याग करते थे, इस प्रकार स्वामो इन्द्रियजय हए ।। ९० ।।
स्त्री को देखने में वे अत्यन्त बिरवत, समस्त वस्तुओं के स्वरूप को जानने वाले, उत्तम बुद्धिमान् वे चौथी चक्षुरिन्द्रिय को नित्य जीतते
रागादि से युक्त गोत वार्ता के सुनने का भी निश्चित रूप से परित्याग कर वे जिनेन्द्र उक्तियों के प्रति प्रीतिपूर्वक अपने कान लगाया करते थे अर्थात् जिनेन्द्रोक्तियों को प्रीतिपूर्वक सुनते थे।। - २ ॥
इस प्रकार स्वामी अपनी पाँच इन्द्रियों के वन्त्रकों को वंचित करते थे। जिसकी सामर्थ्य है, ऐसा चतुर किसके द्वारा वंचित हो सकता है ॥ ९३ ॥
याचना जिन्होंने छोड़ दी है, ऐसे परमार्थ को जानने वालों में श्रेष्ठ मुनीन्द्र परीषह जय के लिए मस्तक पर लौंच करते थे ॥ १४ ॥
दस वे सामायिक के दोषों को छोड़कर चैत्य और पंच गुरुओं के प्रतिभक्ति-पाठ क्रमादि से तीनों सन्ध्याओं में श्रीजिनेन्द्र की वन्दना और भक्ति में तत्पर रहकर समताभाव का आश्रय लेकर सदा अनुत्तर सामायिक करते थे ॥ ९५-९६ ॥
समस्त पापों को नष्ट करने वाली, महान् अभ्युदय को देनेवाली चौबीस तीर्थंकरों की नित्य स्तुति करते थे ।। ५७ ॥ ___जिनके ज्ञानादि गुण प्रकट हैं ऐसे तीर्थंकर की वन्दना को चतुरों में उत्तम वह उनके गुणों की प्राप्ति के लिए नित्य करता था ।। ९८॥