Book Title: Sudarshan Charitram
Author(s): Vidyanandi, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 201
________________ दामोऽधिकारः १८१ " मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, ईर्यासमिति आदान निक्षेपणसमिति तथा देखकर अनपान ग्रहण करना ये अहिंसा व्रत की पांच भावनायें हैं ॥ ७० ॥ क्रोध का त्याग, लोभ का त्याग, भय का त्याग, हास्य का त्याग तथा अनुवीची भाषण से पांच सी भावनायें हैं ॥ ७१ ॥ शून्यागारवास, बिमोचितावास, दूसरों का उपरोध करने का त्याग, भैक्ष्यशुद्धि तथा साधर्मी जनों से विसंवाद का त्याग ये पाँच अचार्यव्रत की भावनायें मुनिश्रेष्ठों ने कही हैं ।। ७२-७३ || स्त्रियों के प्रति अनुराग रखने वाली कथाओं के सुनने का त्याग, उनके रूप को देखने का त्याग, पूर्व रति की स्मृति का स्याग, पुष्टाहार का त्याग तथा शरीर के संस्कार त्याग चतुर्थ ब्रह्मचर्य नामक व्रत की ये पाँच भावनायें सुनि के शील रक्षण हेतु कही हैं ।।७४-७५ ।। इंद्रियों से उत्पन्न इष्ट अनिष्ट विषयों में मुनि के सदा राग-द्वेष का परित्यागये अपरिग्रह नामक पंचम व्रत की भावनायें हैं ॥ ७६ ॥ इस प्रकार उन पाँच व्रतों की उत्तम पच्चीस भावनाओं का स्वामी ने नित्य पालन किया ॥ ७७ ॥ धीर, दयापरायण वे सदा ईसपथ शोधन करते थे, मानों निधान को देख रहे हों ॥ ७८ ॥ ईर्यापथशोधन के बिना दयारूपी लक्ष्मी मुक्ति की प्रसाधिका नहीं होती है। जैसे रूप से युक्त शीलहान नारी शोभित नहीं होती है ।। ७९ ।। जिनागम के अनुसार स्वामी वचनरूपी अमृत बोलते थे । वे उत्कृष्ट सुख को देनेवाली भाषा समिति का सेवन करते थे ॥ ८० ॥ श्रावकों के द्वारा युक्तिपूर्वक दिए गए शुभ अन्न पानादिक को देखकर मुनि एक बार सन्तोषपूर्वक, तप की वृद्धि के निमित्त बीच-बीच में तप करते हुए मुनीश्वर नित्य एषणासमिति धारण करते थे || ८१-८२ ॥ आदान और ग्रहण में प्रायः उनका प्रयोजन नहीं होता था। समस्त कार्यों से रहित होने के कारण वे विशेष रूप से निस्पृह थे ॥ ८३ ॥ तथा कदाचित् किंचित् पुस्तक को कमण्डलु को मृदु पिच्छों के समूह से स्पर्श कर संयमी ग्रहण करते थे ॥ ८४ ॥

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