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दशमोऽधिकारः
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इत्यादिक विचार कर पुत्र को राज्य देकर प्रसन्नतापूर्वक सेठ के पुत्र सुकान्त को सेठ के पद पर स्थापित कर, सुखदायक जिनेन्द्र भगवान् का अभिषेक, पूजन कर यथायोग्य सबको दान देकर सबका युक्तिपूर्वक सन्तोष दिलाकर, पराक्रमशाली बहुत सारे क्षत्रिय सेवकों के साथ उसी को हो गुरु मानकर विचक्षण मुनि हो गया ।। १३-१५ ।।
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सच है, जो संसार में जिनधर्मवित्रक्षण भव्य हैं, वे बुद्धिमान् नित्य अपना हित साधते हैं ॥ ६६ ॥
तब उसने अन्तःपुर में समस्त परिग्रह का त्याग कर वस्त्र मात्र को ग्रहण कर अपने योग्य तप को स्वीकार किया ॥ १७ ॥ तथा अन्य जैनधर्म में सुतत्पर बहुत से विशेषतः अत्यधिक रूप से ग्रहण किए ।। १८ ।
भव्यों ने
कुछ बुद्धिमानों ने वहाँ संसार भ्रमण के सम्यक्त्वरूपी उत्तम रत्न को आदरपूर्वक पाया ॥
श्रावकों के व्रत
नाश करने वाले शुद्ध
१९ ॥
वहीं पर चम्पा में जिनदीक्षा विचक्षण वे मुनिश्रेष्ठ पारणा के दिन कष्टकर मानादिक छोड़कर, जेनेश्वर निर्ग्रन्थय मार्ग की आत्मा की सिद्धि के लिए मानकर ईर्यापथ को महाशुद्धि से भिक्षा के लिए निकले ||२०-२१ ॥
वहाँ पर वह स्वामी सुदर्शन नामक उत्तम मुनि चित्त में यह मानकर कि जिनेन्द्र कथित मुनि का मार्ग कल्याण प्रदान करने वाला है || २२ ॥ तब वे मान और अहंकार से रहित होकर महान् होते पर भी नगर के मध्य भिक्षा के लिए निकले। अपने रूप से उन्होंने कामदेव को जीत लिया था ॥ २३ ॥
वे दयारूपी लता से युक्त थे अथवा चलते-फिरते कल्पवृक्ष थे । . बुद्धिमान वे ईर्यापथ दृष्टि से युक्त मन में अत्यन्त निःस्पृह थे ॥ २४ ॥
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छोटे बड़े सभी घरों के प्रति अत्यधिक रूप से समभाव को भाते हुए उनके रूप को देखकर नगर की समस्त स्त्रिय, महाप्रेमरस से पूर्ण हो गईं, जिस प्रकार समुद्र को देखकर सरितायें प्रेमरस से घूर्ण हो जाती है। उसे देखने के लिए शीघ्र ही चारों ओर से परम आनन्द से मिल गई || २५-२६ ॥