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नयमोऽधिकारः
व्यन्तरों के विमानों में असंख्यात रस्नमथी और सूवर्णमयो जिनालय हैं, उनकी मैं वन्दना करता हूँ ॥ ५६ ।।
अस्सी हजार योजन प्रमाण जलादि बहल भाग को आदि करके क्रम से नीचे सात पाताल भूमियों में जहां नारकी विद्यमान हैं। वहाँ वे मिथ्यात्व, हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह के कारण, कष्टकर दुष्ट कपाय आदि से, पूर्वजन्म में अजित पापों से छेदन, भेदन आदि के विविध प्रकार के दुःख सहते हैं ।। ५७-५८-५९ ।।
वे अपनी उत्पत्ति से लेकर मृत्यु पर्यन्त कवि को वाणों के अगोचर, ताड़न, तापन, शूलारोहण तथा अत्यधिक बुरी तरह मरने के दुःख को सहन करते हैं ।। ६० ।।
एक राजू सुविस्तीर्ण मध्यलोक भी दुगुने-दुगुने विस्तार वाले असंख्यात हीप, सागरों से वर्णित है ।। ६१ ॥
जम्बूद्वीप, धातकोद्वीप तथा पुष्कराई में पाँच उन्नत सुमनोहर मेरु हैं ।। ६२॥
मेरु से सम्बन्धित उनके क्षेत्र है। एक सौ सत्तर तीर्थंकरों की जन्मभूमियाँ हैं ।। ६३ ॥
जहाँ भव्य जगत् के हितकारी जिनधर्म को आराधना कर अपनी शक्ति से स्वर्ग और मोक्ष सम्बन्धी सुख प्राप्त करते हैं ।। ६४॥
मेरु आदि में श्री जिनेन्द्र भगवान् के चार सौ अट्ठावन जगदितकारी प्रासाद सुशोभित हैं ।। ६५ ।।
ये जिनालय नित्य स्वर्णमय, ॐत्रे, शाश्वत और सुखकारी हैं। ये रत्नों की प्रतिमाओं से युक्त हैं और मनुष्य तथा देवों के अधिपों के द्वारा पूजित हैं ।। ६६ ।।
व्यन्तरों और ज्योतिषियों के विमानों में नित्य असंख्यात जिनेन्द्रभवन हैं ॥ ६७ ॥ ___मनुष्य और पशु आदि से भरे हुए जिस तिर्यग्लोक में कृत्रिम जिनभवन हैं ।। ६८ ॥
सौधर्मादिक फल्पों में प्रेसठ पटलों में चौरासी लाख जिनेन्द्रों के प्रासाद हैं ।। ६९ ॥
ये सत्तानवे हजार तेईस रस्तों के मनोहर बिम्बों से प्रकृष्ट स्प से सुशोभित हैं ।। ७० ॥