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नवमोऽधिकारः
१६७ समस्त देवेन्द्र, देवों का समूह तथा अहमिन्द्रों के द्वारा भक्तिभाव पूर्वक पूजित और वन्दित उन्हें मैं नित्य शान्ति के लिए सेवित करता है॥७१ ।।
त्रैलोक्य के मस्तक पर रम्य प्रारभार नामक शिलातल के छत्राकार, सुविस्तीर्ण, समुज्ज्वल सिद्धक्षेत्र है ।। ७२ ।।
उसके ऊपर कुछ कम गब्यूति प्रमाण तनुवात में सदा निरंजन सिद्ध प्रतिष्ठित हैं ।। ७३ ।।
जिनके स्मरण मात्र में रत्नत्रय से पवित्रित मुनि लोग उस पद को प्राप्त करते हैं। वे सिद्ध शान्ति के लिए हों ।। ७४ ॥
इत्यादिक छह द्रव्यों से सदा भरा हुआसारा जग महानश्यों के बार संवेग के लिए जिनेन्द्र भगवान् के वचनों के अनुसार चिन्तनीय है ।।३।।
इति लोकानुप्रेक्षा बोधि से रत्नत्रय की प्राप्ति होती है, बोधि संसार रूपी समुद्र से तारने वाली है, बोधि स्वर्ग और मोक्ष को साधने वाली है, नित्य वह बोधि सदा सेवित की जाती है ।। ७६ ॥
रत्नत्रय दो प्रकार का कहा गया है । (१) व्यवहार से (२) निश्चय से। जिनोक्त तत्त्वसंग्रह में श्रद्धान करना व्यवहार से सम्यक्त्व है । भन्यजीवों का व्रत समूह रूपी भूषण भव्य जीवों को नित्य स्वर्गादि सुख को देने वाला है, दुर्गति को नष्ट करने का कारण है ।। ७७-७८ ॥
निःशंकितादि आठ अंगों से युक्त वह सम्यग्दर्शन मदरहित भव्य में प्रक्षालित महारत्न के समान सुशोभित होता है ॥ ७९ ।।
ज्ञान आठ प्रकार का होता है, उसकी मुमुक्षों को नित्य समाराधना करना चाहिए। यह ज्ञान केवलज्ञान को देने वाला है, जिनेन्द्र कथित है और विरोध से रहित है ।। ८० ||
मुनि और श्रावक के भेद से युक्त चारित्र दो प्रकार का जानना चाहिए। मुनियों के चारित्र के तेरह भेद होते हैं और श्रावकाचार ग्यारह प्रकार का होता है ।। ८१ ॥
निश्चय से निजात्मा शिव के समान शुद्ध-बुद्ध है। इस निजात्मा का दुराग्रह से रहित महाभव्यों को सेवन करना चाहिए ॥ ८२ ॥ ___भाव से शुद्ध रत्नत्रय परमानन्द का कारण है । इत्यादिक बोधि की आराधना करना चाहिए । यह सज्जनों को सार रूप आभूषण है ।।८।।
इति बोधिअनुप्रेक्षा