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सप्तमोऽधिकारः उसके साथ स्वर्ग लोक में भी महाभोगों को उत्कृष्ट चिन्तन आदि के साथ तुम परम आनन्द से करो ।। ५८ ।।
ऐसा कहकर पुनः ध्यान से विचलित करने के लिए सराग वचनों के साथ नाना सराग गीत किए (कहे) ॥ ५९ ।।
तथापि वह धीर जन तक यान नहीं होता , राय :क साहस से उद्धृत मन वाली उस पापिनी, धृष्टात्मा ने उस ध्यान से युक्त सेठ को उठाकर अपने कन्धे पर चढ़ाकर, वेगपूर्वक वस्त्र से उन्हें आच्छादित कर, महामान से युक्त (उन्हें। उस पल पर लाकर गिरा दिया। दुष्टात्मा कामिनी क्या नहीं करती है ? ।। ६०-६१-६२ ॥
मूढ़ अभयमती उस रूप के निधान को देखकर मन में सन्तुष्ट हुई (कि) आज मैं पृथ्वीतल पर धन्य हूँ ।। ६३ ।।
दुष्ट स्त्रियों का यह स्वभाव होता है कि वे काम के बाण से पीड़ित होकर दूसरे मनुष्य को देखकर मन में प्रमोद करती हैं ।। ६४ ॥
उसी प्रकार पाप कर्म करने वाली दुष्टबुद्धि अभयमती कामियों के सुमनोहर शृङ्गार कर, हाव भावादिक समस्त विकारों का प्रदर्शन करके कामपीड़ित वेश्या के समान लज्जा त्याग कर बोली ।। ६५-६६ ॥
तुम मेरे प्रिय हो, मेरे स्वामी हो, तुम मेरे बलशाली प्राणनाथ हो । मैं तुम्हारे रूप, सौन्दर्य को देखकर तुम्हारे प्रति अनुरागिणी हो गई है ।। ६७ ।।
हे कृपासिन्धु ! तुम मेरे प्रिय हो। मैं इस समय प्रार्थना करती हूँ कि मुझे परम शान्तिकारक गाढ़ आलिङ्गन दो ।। ६८ ॥ ___ कामाग्नि से पीड़ित वह रानी इत्यादिक प्रलाप कर मधी के समान लज्जारहित होकार, मुख में मुख डालकर तथा सैकड़ों प्रकार के गाढ़ आलिङ्गन के द्वारा कामाग्नि की ज्वाला से प्रदीप्त सराग वचनों से, अन्य विकार के समूह कटिस्थान आदि के दिखलाने से तथा अपनी नाभि दिखलाकर भी उसे विचलित करने में असमर्थ हुई ॥६९-७१ ॥
तत्क्षण वह पृथ्वी पर निरर्था और मदरहित हो गई। हवा चञ्चला होने पर भी सुमेरु को चलाने में समर्थ नहीं होती है ॥ ७२ ।।