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सप्तमोऽधिकारः
११७ वे भव्य ध्यान रूपी अच्छे पर्वत से मेरु के समान दृढ़ रहे | जिन चरण कमलों के भ्रमर स्वरूप वे वहाँ विचलित नहीं हुए।। ७३ ।।
अनन्तर निर्भय होकर निरथिका तट पडता ले धीज की गोली कि जहाँ से तुम इसे लाई हो, वहाँ छोड़ आओ ।। ७४ ।।
उसने कहा---इसे कहाँ ले जाऊँ। प्रातःकाल हो मया है । देखो, सब जगह पक्षी भी शोर कर रहे हैं ।। ७५ ॥
तब अभयमती अपने मन में महान चिन्ता से दुःखी हो गई । क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, इस प्रकार पश्चात्ताप से पीड़ित हो गई ।। ७६ ।।
हाय, मैंने सुन्दर रूप वाले सुदर्शन का सेवन नहीं किया । वह धीर सुदर्शन भी अपने चित्त में संसार की स्थिति के विषय में स्मरण करता था ।। ३७ || __ अभयमती सोचने लगी, मैंने उचित भोगों को नहीं भोगा। सुदर्शन भी निर्मल जिनभाषित सद्धर्म के विषय में विचार करने लगा || ७८ ।।
अभयमती वित्त में विचार करने लगी कि मेरा निश्चित मरण आ गया। शुद्धात्मा सुदर्शन भी विचार करने लगा कि जिनशासन शरण है।॥ ७९ ॥
पश्चात्ताप कर उसने पण्डिता से कहा कि इसे जहाँ कहीं भी स्थान पर वेगपूर्वक पहुँचाओ ।। ८० ॥
धाय ने घबड़ाकर कहा कि सूर्य निकल आया है। मेरे द्वारा ले जाना सम्भव नहीं है, जो उचित हो, उसे करो ।। ८१ ।।
उसे सुनकर पापात्मा अभया डरकर मृत्यु को सर्वथा देखकर अपने दोनों स्तन, हृदय और मुख को नाखूनों से विदीर्ण कर, मुझ शीलवती के शरीर को इस दुर्बुद्धि कामातुर ने आकर ध्वस्त कर दिया, इस प्रकार जोर-जोर से चिल्लाने लगी ।। ८२-८३ ॥
दुःशीला, कामलम्पटा, दुष्ट स्त्री क्या नहीं करती है ? कुललक्ष्मी का क्षय करने वाला पातक लोक में कष्टदायक होता है ।। ८४ ।।
उस चिल्लाहट को सुनकर और वहां पर आकर उस स्थान पर स्थित उस सेठ को देखकर सेवक आश्चर्य से युक्त हो गए ॥ ८५ ||
राजा को नमस्कार कर वे बोले । हे राजन् ! रात्रि में धृष्ट पापी सुदर्शन ने देवीगृह में आकर, कामातुर होकर अभयादेवी के अति सुन्दर शरीर को विदीर्ण कर दिया । हे प्रभु ! उसका क्या करें ? ८६-८७ ।।