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सुदर्शनचरितम् लेना, देना, रखना । (९) परिताप क्रिया-दूसरे को दुःख देने में लगना। (१०) प्राणातिपात क्रिया-दूसरे के शरीर, इन्द्रिय वा श्वासोच्छ्वास नष्ट करना । (११) दर्शन क्रिया--रागादि भाव से सौन्दर्य देखने की इच्छा। (१२) स्पर्शन किया-रागादि भाव से किसी चीज के प न करने की इच्छा। (१३) प्रात्ययिकी मी-विषयों को नवीन-नवीन सामग्री एकत्रित करना । (१४) समन्तानुपात क्रिया-स्त्री, पुरुष तथा पशुओं के उठने, बैठने के स्थान को मलमूत्र से खराव करना। (१५) अनाभोग क्रियाबिना देखे या बिना शोधी जमीन पर उठना, सोना था कुछ धरना। (१६) स्वहस्त क्रिया-जो काम दूसरे के योग्य हो उसे स्वयं करना । (१५) निसर्ग क्रिया-पार को बढ़ाने वाली क्रिया करना । (१८) विदारण क्रिया-दूसरे के दोष प्रकट करना । (१९। आज्ञावापादिनी क्रियाशास्त्र की आज्ञा स्वयं पालन करना और उसके विपरीत अर्थ करना तथा विपरीत आदेश देना । (२०) अनाकांक्षा क्रिया-आलस्य के वशीभूत हो शास्त्रों में कही गई आज्ञाओं के प्रति आदर या प्रेम न करना । (२१) आरम्भ क्रिया-प्रारम्भ जनक क्रिया स्वयं करना या करते हुए को देख हर्षित होना। (२२) परिग्रह क्रिया-परिग्रह का कुछ भी नाश न हो, ऐसे उपायों में लगे रहना । (२३) माया किया-मायाचार से ज्ञानादि गुणों को छिपाना । (२४) मिथ्यादर्शन क्रिया-मिथ्यादृष्टियों की तथा मिथ्यात्त्व से परिपूर्ण कार्यों की प्रशंसा करना । (२५) अप्रत्यास्थान क्रिया-त्याग करने योग्य हो उसका त्याग न करना । __ छन्त्रोस पृथिवयाँ-(१) रुचिरा नाम को एक पृथ्वी है। वह भरत और ऐरावत के अवसर्पिणो काल में (२) शुद्धा-नाम की पृथ्वी कही जाती है और वही उत्सर्पिणी काल में (३) खरा-नाम से कही जाती है। रत्नप्रभा भूमि के खर भाग में पिण्ड रूप से एक दो हजार योजन के परिणाम वाली निम्नलिखित सोलह भूमि हैं। () चित्रा पृथ्वी (५) वज्र पृथ्वी (६) वैडूर्य पृथ्वी (७) लोहिताक पृथ्वी (८) मसारमंध पृथ्वी (९) गोमेध पृथ्वी (१०) प्रवाल पृथ्वी (११) ज्योति पृथ्वी (१२) रसांजन पृथ्वी (१३) अंजनमूल पृथ्वो (१४) अंक पृथ्वी (१५) स्फटिक पृथ्वी (१६) चंदन पृथ्वी (१७) वर्चक पृथ्वी (१८) वकुल पृथ्वी (१९) शिलामय पृथ्वो (२०) पंक भाग में ८४ हजार योजन के परिमाण वाली पृथ्वी तथा इसी भूमि के अब्बहुल भाग में ८० हजार योजन परिमाण वाली 'रत्नप्रभा' नाम की नरक की पृथ्वी है और आकाश के नीचे ६ नरकों की भूमिये हैं कुल मिलाकर २६ पृथ्क्यिां हैं।