________________
अष्टमोऽधिकारः
वे परमात्मा का ध्यान कर रहे थे। उनके भाव मेरु के समान स्थिर थे । वे अन्य गुणों इत्यादि से पवित्र थे और सुशोभित थे ।। ८७ ॥
तब दधापरायण बालक ने अपने मन में विचार किया। इस तीन शीत से पृथ्वीतल पर कोई-कोई वृक्ष भी नाश को प्राप्त हो जाते हैं। गुणों के आधार, दिगम्बर, वीतराग, अति निस्पृह स्वामी कैसे ठहरते है ? ॥ ८८-८९ ॥
वस्त्रादि से युक्त हम जैसे लोग शीतल वायु से दांतों में संकट पाए हुए कम्पित होते हैं ! पशु भी दुःखी होते हैं ।। ९० ।।
इस प्रकार विचार करते हुए दया से आर्द्र बुद्धि वाला ग्वाला घर जाकर काष्ठादिक लाकर आदरपूर्वक मुनिनाथ के चारों ओर समीप में दुःसह अग्नि जलाकर उन मुनि के हाथ-पैरों में अपने दोनों हाथ गरमगरम कर अत्यधिक भक्तिभाव से युक्त होकर समीप में भ्रमण करता हुआ, शरीर में मर्दन करके, आनन्दपूर्वक स्वास्थ्य किया ॥ २१-९२-९३ ।।
इस प्रकार महाप्रीति से रात्रि में सेवा करता हुआ बुद्धिमान् ठहरा। सच है, आसन्न भव्यों की गुरु भक्ति में रति होतो है ।। ९४ ।।
दयासिन्धु सुनिस्पृह मुनीन्द्र भो सुखपूर्वक रात्रि में ध्यानकर सूर्योदय होने पर मन में योग निरोधकर, यह आसन्न भव्य है, ऐसा मानकर प्रमदप्रद सात अक्षरों का महामन्त्र देकर वे उससे बोले ॥ ९५-९६ ।।