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अष्टमोऽधिकारः
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हे वृद्धिम्गान् सुनो! इस मन्त्रराज के निश्चित रूप से समस्त कार्य सिद्ध हो जाते हैं और कष्ट क्षय हो जाते हैं ।। १७ ।।।
पृथ्वी पर समस्त विद्याधर और चक्रवर्ती आदि ने भी इस मन्त्र की आराधना कर स्वर्ग और मोक्ष पाया ।। २८ ।।
तुम्हें भी सब जगह, कार्यों में अथवा गमनागमनों में सुख-दुःख में, भोजन दि में मन्त्रराज की आराधना करना चाहिए । ९.९ ।।
णमो अरहताणं ऐसा कहकर, परम पावन स्वामो मुनि स्वयं उसी सन्मन्त्र को कहकर आकाश रूपी आँगन में चले गए ।। १०० ।।
उस मन्त्र से मुनि के उत्तम नभोगमन को देखकर उसकी तब उस मन्त्र में धर्मदायिनी श्रद्धा हो गई ।। १०१ ॥
वह मनाला भी भंसार के हितकारी प्रभारी निदानस्वरूप उस मन्त्र को पाकर परम आदर से सन्तुष्ट आत्मा वाला होकर, भोजन, शयन, पान, यान, अरण्य, घने वन, पशुओं के प्रोतिपूर्वक रक्षण, बन्धन और मोचन में अन्यत्र समस्त कार्यों में प्रमोदपूर्वक अत्यधिक रूप से पढ़ता हुआ, गायों के दोहन काल में मन्त्र का उच्चारण करता था ।। १०२-१०४ ॥
उससे सेठ ने पूछा-हे ग्बाले ! कहो, यह प्रवर मन्त्र, जो कि संकड़ों सुखों को देनेवाला है, उसे तुम्हें किसने दिया ।। १०५ ।। ।
सुभगने उसे शीघ्र ही प्रणाम कर उस मन्त्र की प्राप्ति का कारण कहा । उसे सुनकर बुद्धिमान् सेठ ने उसकी अत्यधिक प्रशंसा की ||१६||
हे पुण्यात्मा पुत्र तुम धन्य हो। तुम्हीं गुणों के सागर हो, जो कि तुमने उन मुनि के दर्शन किए और संसार के हितकारी मन्त्र को पाया ।। १०७ ।।
तुमने अपने जीव को भवसागर से निकाल लिया । तुम्हीं लोक में प्रवर हो, तुम्हीं शुभसंचय हो । १०८ 11
जिस प्रकार पालिश किया हुआ दर्पण सुनिर्मल होता है, उसी प्रकार अच्छे मन्त्र के योग से जीव निर्मलता को प्राप्त हो जाता है ॥ १०९ ॥
इस प्रकार सम्यग्दृष्टि, सुधार्मिक सेठ ने उसकी प्रशंसा कर ग्वाले को वस्त्र, भोजन तथा उत्तम वाक्यों से सन्तुष्ट किया ॥ ११ ॥