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सप्तमोऽधिकारः
१२१ इत्यादिक तब नगरवासियों ने पश्चाताप किया। इस संसार में जो सन्त होते हैं, वे दूसरों के दुःख को सहन करने में समर्थ नहीं होते हैं ।। १०३ ॥ ___ करोड़ों कष्टों को करने वाली उस बात को किसो ने शीघ्र हो मनोरमा से कह दिया । तुम्हारे प्राणवल्लभ, राजपत्नी के प्रसंग से, शील खण्डन के दोष से राजादेश से कष्टपूर्वक श्मसान में मारे जा रहे
उस बात को सुनकर कम्पित समस्त शरीर वाली मनोरमा शोक से विह्वल होकर रोतो हुई, छाती पीटती हुई, वायु से आहत कल्पवृक्ष से वियुक्त लता के समान पद-पद पर मार्ग में लड़खड़ाती हुई वेगपूर्वक चली || १०६-१०७ ॥
हा नाथ ! हा नाथ ! गुणों के मन्दिर, तुमने यह क्या किया ? इत्यादिक कथन करती हुई, वहाँ श्मसान में आकर, सो से वेष्टित चन्दनबुक्ष के समान दुष्टों से घिरे हुए देखकर उससे यह वचन बोली-हे नाथ ! तुम्हारा क्या विरूप हो गया ? ॥ १०८-१०९ ।।।
हा नाथ ! करोड़ों कष्टों को करने वाले इस दोष का संभव किस दुष्ट ने इस प्रकार कर दिया ? || ११० ।।
तुम सदा शील रूपी जल से पृथ्वी का प्रक्षालन करते थे और श्री जिनेन्द्र द्वारा कहे गए सद्धर्म का पालन करने में तत्पर थे ।। १११।।
क्या मेरु अपने स्थान से चलता है ? क्या समुद्र मर्यादा को छोड़ता है ? हे नाथ ! क्या तुम निश्चित से शील का परित्याग करते हो ? ॥११२।।
हा नाथ ! स्वप्न में भी तुम्हारा व्रत खण्डित नहीं होता है । सचमुच पश्चिम दिशा में क्वचित् सूर्य उत्पन्न नहीं होता है ।। ११३ ।।
अहो करुणापर नाथ ! क्या हुआ ? मुझ से बोलो। हे प्राणवल्लभ ! तुम वचन रूपी अमृत से मेरा स्वास्थ्य करो ॥ ११४ ।।
इत्यादिक प्रलाप करती हुई. जब बह सामने विद्यमान थी, तब धीर सुदर्शन अपने मन में अत्यधिक रूप से विचार करने लगे ।। ११५ ॥ ___ अपने द्वारा उपार्जित कर्मों के अनुसार भ्रमण करने वालों में से संसार में किसका पुत्र है ? किसका घर है ? किसकी भार्या है ? किसके बान्धव हैं ।। ११६ ॥ __ संसार में रत्न, स्वर्णादिक सब अस्थिर है। सम्पदा नित्य चपल और आधे क्षण के लिए चञ्चल है ॥ ११७ ॥