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सप्तमोऽधिकारः
१२३.
इस संसार में देव अथवा राजा, देवेन्द्र अथवा फणीन्द्र, शुभ रत्नत्रय को छोड़कर दूसरा कोई शरण नहीं है ॥
११८ ॥
यहाँ पर कर्मोदय से अत्यधिक रूप से जो कुछ भी हो जाय । मुझे नित्य श्री पञ्चपरमेष्ठी की शरण हो ।। ११९ ।।
इस प्रकार मेरु के समान निश्चल आशय वाला बुद्धिमान् चतुरोत्तम सुदर्शन जब तक वैराग्य का चिन्तन कर रहा था || १२० ॥
जब तक कि कोई अत्यधिक बुरे अभिप्राय वाला उसके गले पर तलवार का प्रहार करता, तब तक उसके शील के पुण्य से, आसन के कम्पन से शीघ्र ही जैनधर्म के प्रति अत्यधिक स्नेह रखने वाले, जिनेन्द्र भगवान् के चरणकमलों के भ्रमर यक्षदेव ने आकर उन समस्त दुष्ट राजसेवकों को रोक दिया। सम्यग्दृष्टि जीव साधर्मियों के मानभङ्ग को सहन नहीं करता है ।। १२१-१२३ ॥
इस प्रकार परम आनन्द से भरे हुए महाधीर क्षेत्र ने धर्म के प्रति अनुराग के कारण उसके उपसर्ग का निराकरण कर दिया || १२४ ||
दिशाओं के मुख को सुगन्धित करने वाली शीघ्र ही फूलों की वर्षा कर सज्जनों के प्रति भक्ति से युक्त बुद्धिमान् यक्ष ने सेठ की पूजा की ।। १२५ ।।
वहाँ पर स्थित भव्यों ने परम आनन्द से भरे होकर सज्जनों को आनन्द देने वाला जय कोलाहल किया ।। १२६ ।।
उसे सुनकर धात्री वाहन नामक दृष्ट राजा ने पुनः सुनिष्ठुर भूत्यों को भेजा ।। १२७ ॥
स्फुरायमान प्रभा वाले परमोदय, बुद्धिमान् यक्षदेव ने उन्हें भी कोलित कर दिया || १२८ ॥
अनन्तर कोप से जिसका शरीर कम्पित हो रहा है, ऐसा राजा स्वयं चतुरंग सेना लेकर उसके वध के लिए आ गया ॥ १२९ ॥
समर्थ यक्षदेव भी हाथी, घोड़े आदि की मायामयी सेना को बनाकर वेगपूर्वक सामने खड़ा हो गया ॥ १३० ॥
भयशीलों को भयप्रदान करने वाला उन दोनों का चमत्कारी गाढ़ महायुद्ध बहुत देर तक हुआ ।। १३१ ।।