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व्याघ्री से डरे हुए मृग के समान वह भी अपने घर चला गया । ऐसा मानकर दुष्ट स्त्रियों के प्रति विश्वास नहीं किया जाता है || ४३ || जो भव्य संसार में जिनेन्द्र वचनों में रत हैं। वे सुख देने वाले शील की जिस किसी प्रकार रक्षा करते हैं ॥ ४४ ॥ जो मूढ परस्त्रीरत हैं, निष्कृट वे दुर्भाग्य और मानभङ्ग को प्राप्त करते हैं ॥
पृथ्वी तल पर दुःख, दरिद्रता, ४५ ॥
इस प्रकार मन में जिनोक्त, सुख देने वाले सत्य वचन जानकर मुख को चाहने वालों को बील रूपी रत्न का पालन करना चाहिए || ४६ ॥
अनन्तर विशुद्धात्मा वह चतुर भव्य सेट सुदर्शन अपने शील के रक्षण में जब तक जिन कथित समस्त प्राणियों को सुख लाने वाले धर्मं का आचरण करता हुआ रहा तब तक लोगों का मनोहर वसन्त मास आ
गया ।। ४७-४८ ॥
वनस्पति और स्त्री का वह प्रिय अथवा प्रकृष्ट मद प्रदान करने बाला | वह कामियों के लिए अत्यधिक रम्य और महोत्सव करने वाला
था ।। ४९ ।।
वह जलाशयों को भी भली-भांति निर्मल कर रहा था। इस प्रकार वह वसन्त नित्य सुशोभित हो रहा था । अथवा सज्जनों का संगम हितकारी होता है ॥ ५० ॥
वस्त्र और आभूषण से संयुक्त, प्रमोद के समूह से भरे हुए लोगों को वह सुख से युक्त कर रहा था । इस प्रकार वह उत्तम राजा के समान सुशोभित हो रहा था ॥ ५१ ॥
पल्लवों से युक्त चम्पा, आम और वसन्तादि वृक्षों को वह सज्जनों के समान फल, पुष्पादि से सम्पन्न कर रहा था ॥ ५२ ॥
वहाँ पर वसन्त का आगमन होने पर प्रमोद से भरे हुए हृदय वाला धावाहन राजा वस्त्रों से परिष्कृत होकर, छत्र, चामर तथा बाजों से युक्त होकर समस्त अन्तःपुरादि एवं समस्त नगरनिवासियों से युक्त हुआ क्रीडा के लिए वन में गधा ।। ५३-५४ ।।
वहाँ पर गई हुई रानी अभयमती ने सुदर्शन के अत्यधिक महाप्रीति को उत्पन्न करने वाले रूप को देखकर भुवन के क्षोभ का कारण यह रूप आश्चर्यकारक है, आश्चर्यकारक है। इस प्रकार मन में मोहित होकर उसकी अत्यधिक प्रशंसा को ।। ५५-५६ ॥
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