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सप्तमोऽधिकारः
अनन्तर थी जिननाथ द्वारा कहे हुए श्रावकाचार को जानने वाले नित्य दान, पूजादि में तत्पर, विद्वानों में श्रेष्ठ, तत्त्व के ज्ञाता सेठ सुदर्शन अष्टमी आदि चार पर्व के दिनों में कर्मों की निर्जरा करने वाले उपवास को अत्यधिक कर रात्रि में श्मसान जाकर धोए हुए बस्यों से युक्त होने पर भी मुनि की तरह देह से निस्पृह होकर ध्यान लगाया करते थे ।। १-३ ॥ __इस बात को जानकर वह पण्डिता भी उन्हें लाने का उद्यम करने लगी। कुम्हार के घर जाकर और मिट्टी के नराकार सात पुतः शीघ्र बनवाकर उन्हें लेकर वह धृष्ट मन बाली संध्या में, एक को कन्धे पर रखकर बेगपूर्वक वस्त्र से आच्छादित कर जब राजा के भवन में आई, तब मुख्य मार्ग पर आने पर द्वारपाल ने उससे कहा--कन्धे पर यह क्या भनुष्य के समान उताकर शीघ्र जा रही हो ।। ४-५-६-७॥
वह महाधूर्ता बोली--अरे दुष्ट, इस समय तुम्हें क्या मैं निःशङ्क मन से देवी के समीप में स्थित होकर स्वेच्छा से समस्त कार्य करती हूँ, इसमें कोई संशय नहीं है। तुम मुझे मना करने वाले बेचारे कौन होते हो ? ||८-९ ॥
अनन्तर उस द्वारपाल ने पण्डिता को अपने हाथ से पकड़ा। उस पुतले को शीघ्न पकड़कर और उसके सौ टुकड़े कर, अनन्तर कोप से उससे बोली-हे हे दुष्ट, नष्ट बुद्धि वाले, पहले किसी ने भी इस राज्य में सर्वथा मना नहीं किया ॥ १०-११ ।।
कष्ट की बात है, तुमने यह रानी का पुतला पर्थ ही नष्ट कर दिया । हे मूढ़ ! तुम नहीं जानते हो कि कामयत में उद्यत रानी, आठ दिन तक मिट्टी के पुरुष की पूजा करेगी और रात्रि जागरण भी करेगी, उसके लिए उसने मुझे भेजा है ॥ १२-१३ ।।
वह यह मूर्ति तुमने तोड़ दी, तुम्हारे कुल का नाश हो गया। नारी नित्य मायामय होती है, कार्य का आश्रय करने वाली की तो बात ही क्या है ? १४ ॥