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षष्ठोऽधिकारः
एक बार अपने पुण्य से रूप सौभाग्य से सुन्दर बुद्धिमान् सेठ सुदर्शन अपने कार्य के लिए किसी नगर में जा रहा था। वह शील सम्पन्न, परस्त्रियों से पराङ्मुख, श्रावकाचार से पवित्र आत्मा वाला तथा जिनभनिसारायणः । १.६ ।।
नतमस्तक होकर जब वह कपिल के घर के समीप गया। तो वहाँ रूप से रन्जित उस सज्जन को कपिला ने देखा ॥ ३ ॥
तब काम के बाणों में भयंकर चित्त में उसने भुवन में प्रीतिकारक उस रूप के विषय में सोचा, जब मैं इसके साथ अपनी इच्छा से कामक्रीड़ा करूँगी, तभी मेरा जीवन, जन्म और यौवन भूमि पर सफल है || ४-५ ॥
अन्यथा जनरहित स्थान में फूल के समान सन्न निष्फल है। कामविह्वला ब्राह्मणस्त्री कपिला ऐसा विचारकर, जन्न कपिल अपनी इच्छा से किसी कार्य से कहीं गया तो उसने अपनी सखी से कहा । हे माता ! इस शुभ सुदर्शन को तुम लाकर मेरे कामदाह को शान्ति के लिए दो, नहीं तो हे भद्रे ! तुम मुझे यम मन्दिर को प्राप्त हुई ही समझो ।। ६-७-८ ॥
सत्य रूप में मेरे ऊपर तुम्हारा यह उपकार होगा। मेरे प्राण धारण करने में निश्चित रूप से तुम जैसी अन्य सखी नहीं है ।। ९ ।।
जिस प्रकार ताराओं के समूह के होने पर चन्द्रमा की चाँदनी अन्धकार को नष्ट कर देती है । सचमुच कामातुरा चञ्चला नारी क्या नहीं करती है ? उस बात को सुनकर पापिनी उसके द्वारा प्रेरित बोलने में चतुर वह प्रपञ्चिनी सखी भी सोध्र जाकर हाथ जोड़कर बोली। हे सुन्दर व्यक्तियों में उत्तम तुम सुनो। तुम्हारा मित्र कपिल प्राह्मण महाज्वर से पीड़ित है ।। १०-११-१२ ।।
आप उसके बालमित्र होकर भी कैसे नहीं आए। उस बात को सुनकर बुद्धिमान् बह वणिक् श्रेष्ठि सुदर्शन भी उससे बोला । हे भद्रे, मैं यह बात सर्वथा नहीं जानता हूँ। तुम्हारी उक्ति और शपथ से इसी समय जान रहा हूँ ।। १३-१४ ॥