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दशलाक्षणिक धर्म है। उसके प्रति श्रद्धा सुखप्रद है । दुर्गति को नष्ट करने वाली उस श्रद्धा का भव्यजनों को सदा रक्षा करना चाहिए || २७॥ जिनोक्त सप्त तत्वों का जो निर्मल श्रद्धान है, वह सम्यग्दर्शन कहा गया है । वह भव भ्रमण का नाश करने वाला है ॥ २८ ॥
सात प्रकृतियों के शम, मिश्रण और क्षय से जो सम्यग्दर्शन होता है, वह क्रमशः औपशमिक, क्षायिक और मिश्र कहा जाता है ।। २९ ।।
सम्यग्दर्शन से युक्त धर्म होता है, जो कि भव्यों को स्वर्ग और मोक्ष "देने वाला होता है, जिस प्रकार कि अधिष्ठान से युक्त प्रासाद सुशोभित होता है ॥ ३० ॥
श्रेष्ठ मुनियों ने पांच उदुम्बर फलों से युक्त मद्य, मांस तथा मधु के - स्याम को गृहस्थों के अष्टमूलगुण कहा है || ३१ ॥ ]
तथा सत्पुरुषों को नित्य द्यूतादि व्यसनों का त्याग करना चाहिए। इन व्यसनों के आश्रम से महान पुरुषों को भी कर हु ॥ ३२ ॥
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सप्त व्यसनों में प्रधान द्यूत कहा जाता है। इस द्यूत से कुल, गोत्र, यश और लक्ष्मी का विनाश होता है, अतः बुद्धिमान् व्यक्ति को इसका त्याग करना चाहिए ॥ ३३ ॥
जुवारियों में सदैव राग, द्वेष, असत्य, प्रवचना आदि समस्त दोष रहते हैं, जिस प्रकार सर्पों में दुविष रहता है || ३४ ||
इस विषय में श्रावस्ती के राजा सुकेतु का उदाहरण है, जिसने जुए के दोष से अपना राज्य भी गँवा दिया ॥ ३५ ॥
राजा युधिष्ठिर भी छूत के द्वारा छले गए और कष्टकर अवस्था को प्राप्त हुए, अतः भव्यजनों को इसका त्याग करना चाहिए ॥ ३६ ॥
सुना जाता है कि पहले कुम्भ नामक काम्पिल्य का अधिपति राजा अपने रसोइए के साथ विनाश को प्राप्त हुआ ।। ३७ ।।
मांस में आसक्त, न बुद्धि बाला, लोगों का और बालकों का भक्षक बक राजा लोगों के द्वारा निन्दित हुआ || ३८ ॥
उसने ब्राह्मण के पुत्र को खा लिया, अतः बुद्धिमान् नगरवासियों ने उसका परित्याग कर दिया। बह मरकर दुर्गति को प्राप्त हुआ। पापियों की ऐसी ही गति होती है || ३९ ॥
मद्यपाथी की शीघ्र मद्य के पीने मात्र से अपने पाप से सदा बुद्धि नष्ट हो जाती है । ( इस विषय में ) दृष्टान्त कहा जाता है ॥ ४० ॥